सिपाहियों के हक के लिए भी लड़े गढ़वाली
hys_adm | October 1, 2020 | 1 | कला साहित्य , किस्से , कॉलम
आज वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की पुण्यतिथि है। वही ‘गढ़वाली’ जो किस्सों कहानियों में पेशावर कांड के नायक के रूप में विद्यमान हैं। आज भी लोगों के जेहन में उनके गांधी से लेकर जवाहर लाल नेहरू तक के किस्से रचे-बसे हैं। वही ‘गढ़वाली’, जिन्होंने ने पेशावर के किस्साखानी बाजार में सत्याग्रहियों पर गोली चलाने से मना कर दिया था, जिसके एवज में उन्होंने तमाम यातनाएं सही। घर नीलाम हो जाने के बावजूद मोर्चे पर साथ देने वाले सैनिकों के घरों की हमेशा देखभाल करते रहे। वह अपने साथियों के हक के लिए भी लड़ते रहे।
बात 23 अप्रैल 1930 की रही होगी। पेशावर के किस्साखानी बाजार में अब्दुल गफ्फार खां की अगुवाई में पठान सत्याग्रह कर रहे थे, जिसकी धमक पूरे ब्रिटिश भारत में गूंज रही थी। ऐसे में अंग्रेजों ने इस सत्याग्रह को कुचलने के लिए गढ़वाल रायफल्स को तैनात किया। सत्याग्रही जब बाजार से होकर गुजर रहे थे तो एक अंग्रेज सिपाही मोटरसाइकिल पर सवार होकर भीड़ को रौंदता हुआ गुजरा, जिसकी वजह से बहुत से लोग घायल हो गए। गुस्साए लोगों ने मोटरसाइकिल को आग के हवाले कर दिया और अंग्रेज सिपाही की जमकर पिटाई कर दी।
लोगों की इस हरकत से अंग्रेज अफसर बौखला गए और उन्होंने रॉयल गढ़वाल रायफल्स को आर्डर दिया ‘गढ़वाली ओपन फॉयर‘। वहीं दूसरी ओर चंद्र सिंह की निर्भिक और कड़दार आवाज आई ‘गढ़वाली सीज फायर’। इस पूरे घटनाक्रम में अंग्रेज कमांडर भौंचक रह गया। इसके तुरंत बाद सभी गढ़वाली सिपाहियों को नजदीक के थाने में ले जाया गया। अब वे सिपाही नहीं, बल्कि अंग्रेजों की हुक्मउदूली करने वाले बंदी थे। फौज की पूरी कंपनी पर मुकदमा चलाया गया। 63 सैनिकों पर मुकदमा चला और उन्हें सजा दी गई। कहते हैं वे जब जेल में थे तो उनकी मुलाकात जवाहर लाल नेहरू से हुई। जेल से रिहा होने के बाद वे कुछ समय परिवार सहित साबरमती आश्रम में गांधी जी के साथ भी रहे, लेकिन बाद के दिनों में उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी का झंडा उठाया।
चंद्र सिंह गढ़वाली के साथ उनके साथी सैनिकों ने भी यातनाएं झेली। इनमें से कई गांव लौटकर गुमनामी में खो गए, लेकिन गढ़वाली ने अपने सैनिकों की खोज खबर की और आजादी के बाद उनके हक के लिए लड़ते रहे। गढ़वाली किस तरह अपने सैनिकों के लिए समर्पित थे, इससे जुड़ा एक शानदार किस्सा है।
गढ़वाली पलटन की इस ‘बागी’ टुकड़ी में चमोली जिले के तुनेड़ा गांव (नारायणबगड़ ब्लॉक) के लांस नायक आंनद सिंह रावत भी शामिल थे। उनके पुत्र सुजान सिंह बताते हैं कि जेल से छूटने के बाद उनके पिताजी घर पर ही रहते थे। जेल की यातनाएं और उपेक्षा के चलते असमय उनके पिता की आंखों की रोशनी चली गई। आजादी के बाद एक दिन अचानक उनके घर कुछ युवा आए और उनके पिताजी को पड़ोसी गांव चोपता में हो रही एक बैठक में ले गए। इस बैठक को चंद्र सिंह गढ़वाली संबोधित कर रहे थे। गढ़वाली पेशावर कांड के सिपाही की उपेक्षा से काफी दुखी हुए और उन्होंने जरूरी कागज लेकर पेंशन लगाने की पैरवी की। सुजान सिंह रावत बताते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन के सिपाही उनके पिता इससे पहले गुमनाम थे। उन्हें लोग सेना का भगौड़ा और न जाने क्या-क्या कहते थे, लेकिन जब चंद्र सिंह गढ़वाली ने भरी सभा में उनके पिता आनंद सिंह रावत की बहादुरी का जिक्र किया तो ताने सुनाने वालों के मुंह बंद हो गए। इसके बाद उनके पिता को आजादी के सिपाही के रूप में पहचान मिली। चंद्र सिंह गढ़वाली की सक्रियता की वजह से यह सब मुमकिन हो, वरना एक बहादुर सिपाही गुमनाम ही रह जाता।
चंद्र सिंह गढ़वाली ने चुनाव भी लड़ा, लेकिन यह दुर्भाग्य ही है कि उनको आजाद भारत में यहां की जनता ने ही खारिज कर दिया। चुनावों में मिली हार के बावजूद के उपेक्षित, वंचित और शोषितों की लड़ाई आजीवन लड़ते रहे। कोटद्वार और नजीमाबाद क्षेत्र में वे राजनैतिक रूप से काफी सक्रियता के साथ काम करते रहे। बिजनौर जनपद में श्रमिक संगठनों के नेता रहे बीरबल सिंह रावत बताते हैं कि गढ़वाली अक्सर पार्टी की बैठकों में नजीमाबाद आते थे। उनकी रौबदार आवाज और वैचारिक स्पष्टता बहुत प्रभावित करती थी। वे पार्टी के विचारों और काम को एक सैनिक की तरह ही आगे बढ़ाते थे। यही कारण था कि उस दौर में नजीमाबाद वामपंथ का सक्रिय क्षेत्र था, जिसकी वजह से बिजनौर जनपद से ही दो-दो विधायक वामपंथी पार्टियों के चुने गए थे।
उत्तराखंड आंदोलन के दौरान राज्य की राजधानी गैरसैंण को चंद्रनगर गैरसैंण किए जाने को लेकर आंदोलनकारियों ने पैरवी की और इस बात की सनद रहे इसको लेकर गैरसैंण में उनकी मूर्ति स्थापित की गई। 1994 में चंद्र सिंह गढ़वाली को लेकर भारत सरकार ने डाक टिकट जारी कर उनके प्रति सम्मान प्रकट किया। आजीवन योद्धा रहे चंद्र सिंह गढ़वाली साहस और जनपक्षधरता की मिशाल थे। वे अंतिम समय तक आम जन की लड़ाई लड़ते रहे। एक अक्तूबर 1979 को दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में उन्होंने आखिरी सांस ली।
लेखक जगमोहन चोपता शिक्षाकर्मी एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं। उनकी लेखनी में पहाड़ की सौधी खुशबू आती है। समसामयिक मुद्दों पर बेबाकी से लिखते हैं।