पहाड़ के मेलों की जान है हाथी नृत्य
hys_adm | October 3, 2020 | 0 | पहाड़ की बात , मेले-त्योहार
उत्सवधर्मी पहाड़ में मेलों की सशक्त परम्परा रही है। ये मेले खेती-किसानी, संस्कृति और व्यापार के इर्द-गिर्द आयोजित होते हैं। मेलों में यहां की संस्कृति के विविध रंगों का तानाबाना ऐसा रचा होता है कि आप इसके कायल हुए बिना नहीं रह सकते। पहाड़ के मेलों में देव डोलियों, निसाण और मुखोटा नृत्यों का भरपूर उपयोग किया जाता है। हाथी नृत्य पहाड़ के मेलों का सबसे आकर्षक नृत्य होता है। है न आश्चर्यचकित करने वाली बात, कि पहाड़ में हाथी न होने के बावजूद यहां के कलावंतों की कल्पनाओं ने इसको साकार किया है। तो चलिये हाथी नृत्य की समृद्ध परम्परा को जानने के लिये आपको ले चलते है उत्तराखण्ड के सीमांत जनपद चमोली के चोपता गांव में, जहां आज यह समृद्ध परम्परा भी जारी है।
हाथी तैयार करने के लिये जरूरी सामग्री चाहिए तीन चारपाई, गंज्याला, सूप, काला कंबल, रंग, बांस या भीमल की पट्टियां और कुछ पुआल। चारपाइयों को आपस में बांध कर तैयार किया जाता है इसका मुख्य ढांचा। उसके बाद बांश या रिंगाल की पट्टियों से तैयार किया जाता है इसका कंकाल। हाथी के आंतरिक ढांचे को बांस की पट्टियों से बांधकर तैयार किया गया। फिर पुआल से तैयार की जाती है इसकी सूंठ। इसके बड़े-बड़े कान बनाने के लिये सूप का उपयोग किया जाता है। जब ढांचा तैयार हो जाता है तो इसे काले कम्बलों से ढक दिया जाता है। इसको बहुत ही करीने से सिला जाता है। आकर्षक और जीवंतता लाने के लिये इसमें रंगों का अहम योगदान होता है। इसलिये सूंड को अच्छे से सजाया जाता है। लाल रंग की चटख रेखा हाथी के सूंठ में बहुत फबती है। कहीं कोई कसर न रह जाये इसके लिये एक साथ कई कलावंत अपने-अपने हिस्से के काम को पूरा करने में लगे रहते हैं।
इस काम को इन कलावंतों ने अपने बड़े-बुजुर्गों से सीखा है। इस काम से जुड़कर गांव के नये कलावंत तैयार होते रहते हैं, जो इस कला को आगे बढ़ाने का काम करते हैं। हाथी नृत्य के दौरान युवा इन कलावंतों से लय, ताल की बारीकियों को सीखते हैं। अपनी लोक कलाओं को सहेजने और संरक्षित करने का यह तरीका कितना सहज और आनंदित करने वाला है न।
जब हाथी तैयार हो जाता है तो कलावंत उठाकर इधर-उधर घुमा और नचा कर परखते हैं, ताकि बीच उत्सव में कोई दिक्कत न हो। जब पुख्ता कर लिया जाता है कि सब ठीक है तो फिर इसमें सवार होती है दुर्गा स्वरूप में गांव की बालिका। पहाड़ के बहुत से मेले में हाथी नृत्य में दुर्गा, कृष्ण या अन्य देवताओं को भी मौकों या त्योहार के हिसाब से सवार किया जाता है।
इसके बाद कलावंत हाथी को कंधे में उठाकर मेला स्थल की ओर बढ़ते हैं। ढोल-दमाऊं और भंकोर की ध्वनियों से पूरा वातावरण रोमांचक हो जाता है। हाथी नृत्य के लिये बहुत जरूरी है कि सभी नृतकों की लय एक जैसी हो, वरना हाथी उनके कंधों से हाथी गिर सकता है।
मेले में हाथी नृत्य को देखने वालों की खासी भीड़ जमा हो जाती है। यह मेले का सबसे आकर्षक पल होता है, जिसका हर किसी को इंतजार रहता है। भीड़ बढ़ने के साथ ही हाथी नृत्य में शामिल कलावंतों का उत्साह भी बढ़ता जाता है। इस नृत्य में शामिल होने के लिये कलावंतों का हुजूम उमड़ पड़ता है। हाथी नृत्य करते हुये कलावंत मुख्य मेला स्थल में घूमने के साथ-साथ मंदिर परिसर में पहुंचते हैं। इस वक्त हाथी नृत्य अपने चरम पर होता है। नृत्य करने वाले कलावंत और दर्शक दोनों ही उत्साहित होते हैं। मंदिर में आरती और पूजा-अर्चना होती है। ढोल-दमाऊं की ताल के साथ ही कलावंतों के कदमों की गति बढ़ और घटती रहती है। इसी के साथ ही हाथी नृत्य की समाप्ति होती है और कलावंत हाथी को नृत्य करते हुये मेला परिसर से दूर होते जाते हैं।
बाजारवाद की अंधी दौड़ के बावजूद यह परम्परा पहाड़ के गांवों में जीवंतता के साथ अब भी मौजूद है। कलावंतों की सक्रियता और जोश से विश्वास जगता है कि यह कला बची रहेगी। साल-दर-साल इसको तैयार करने वाले नये-नये कलावंत तैयार होंगे और पहाड़ के मेले ऐसे ही जीवंत और जोश से लबरेज होंगे।