आजादी की लड़ाई से जुड़ा गांव का किस्सा बड़ा दिलचस्प है… -

आजादी की लड़ाई से जुड़ा गांव का किस्सा बड़ा दिलचस्प है…

hys_adm | August 16, 2020 | 0 | कला साहित्य , किस्से

पहाड़ के गांवों में भी आजादी की लड़ाई की चिंगारी उठी थी। बच्चे से लेकर बड़े तक अपने-अपने तरीकों से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाज उठाते रहे। आजादी की लड़ाई से जुड़ा चमोली जिले के चोपता गांव (कड़ाकोट) का किस्सा, आपके साथ साझा कर रहे हैं।

बात सन् 1944-45 की रही होगी, तब हम दर्जा तीन में पढ़ते थे। उस दौर में बच्चे बड़ी उम्र में स्कूल जाते थे। करीब सात-आठ साल की उम्र में। हम करीब दस-बारह साल के रहे होंगे। हिन्दी से मेरा बहुत लगाव था। हिन्दी को एक बार पढ़ने के बाद दुबारा पढ़ने की जरूरत नहीं पड़ती थी। प्रार्थना के लिए हम तीन या पांच लड़के रहते थे। हमारे स्कूल में प्रार्थना की एक किताब थी, जो पांच पैसे में आती थी। इसमें शुरू में एक प्रार्थना थी, यशस्वी रहे हे प्रभु हे मुरारी, चिरंजीव राजा वो रानी हमारी…
यह वह दौर था, जब कांग्रेस के कार्यकर्ता हमारे स्कूल में आते और हमसे नारे और प्रभात फेरी करवाते थे। बदले में वो हमें गट्टा, मिश्री, चना आदि देते थे। हमें कांग्रेस को लेकर बहुत ज्यादा पता नहीं था, लेकिन ये पता था कि सोल्टा गांव के उर्विदत्त सती, जो हमारे प्रधानाध्यापक थे, वे भी कांग्रेसी थे। हमारे गांव चोपता से ही तीन-चार लोग कांग्रेसी थे। रघुवीर सिंह, जोत सिंह हवलदार, शास्त्री जी कांग्रेस के चवन्नी मेंबर थे।
फागुन का महीना रहा होगा। खेतों में जुताई हो रही थी। गांव में अंग्रेज कमिश्नर के आने की खबरें आई। उनका नाम था रेम्ज डे। मास्टरजी ने कहा कि साहब आ रहे हैं बढ़िया वाली प्रार्थना होनी चाहिए। उन्होंने हमें इसके लिए नई प्रार्थना सिखायी।
कमिश्नर के आने की तैयारियां चल रही थीं। गांव के ठीक नीचे कोठ्यार में कमिश्नर का दरबार लगाया गया। गांव की रामलीला के पर्दे से दरबार को भव्य बनाने का काम किया गया। इधर, गांव के लोग दरबार सजाने में लगे थे तो उधर रात को कांग्रेसियों ने मंदिर के खड़ीक के पेड़ पर लम्बे डंडे में कांग्रेस का झण्डा लगा दिया। उस वक्त झण्डा लगाना किसी देशद्रोह से कम नहीं था।
सुबह भागम-भाग में किसी का ध्यान उस ओर नहीं गया। अंग्रेज कोठली के रास्ते आ रहे थे। लोगों ने बताया कि उन्होंने कोठली में स्कूल के बच्चों को दस रुपये ईनाम व बच्चों की एक दिन की छुट्टी भी कर दी है।
आखिरकार हमारे स्कूल में अंग्रेज अफसर आए और हमने- यशस्वी रहे हे प्रभु हे मुरारी, चिरंजीव राजा वो रानी हमारी… के बजाय गुरुजी द्वारा सिखाई गई नई प्रार्थना को पूरे मनोयोग से गाना शुरू किया, जगत वंदन धरती भारत, तुम्हारी मां सदा जय हो…
वो अंग्रेज था उसने क्या समझना था, परन्तु उसके साथ आ रखे लाव लश्कर ने उसको हमारी प्रार्थना के बारे में बताया। यह सब सुनकर वह गुस्से में आगबबूला हो गया। उसने ईनाम तो क्या हमारी उस दिन की छुट्टी भी नहीं की।
अंग्रेज के लिए नलगांव से पिण्डर की जिंदा मछलियां मंगवाई गई थी। हाथ भर की पांच मछलियों में से दो मर गईं, जिनको उनके खनसामों ने वापस कर दिया। सिर्फ जिंदा मछलियों को उनके लिए बनाया गया।
घर आए तो सभी लोग उसके दरबार में डाली भेंट कर रहे थे। डाली में ज्यादातर अच्छे चावल, एक मुट्ठी राई, च्यूड़ा, अखरोट और कुछ पैसे रखे जाते थे। पिताजी ने कहा, मैं नहीं जाऊंगा, मुझे थोड़ी अंग्रेजों की गुलामी करनी है। दादी ने मुझे कहा, तुम चले जाओ। मैं तैयार हो गया। पिताजी ने कहा कि जा रहे हो तो सलाम करना पड़ेगा। मैंने कहा, सलाम क्या होता है। उन्होंने कहा हाथ ऐसा कर देना। मैं चला गया, डरा नहीं। चाचा ने भी बताया कि डरना नहीं है।
मैंने जाते ही सलाम करने के लिए हाथ उठाया और कंडी अंग्रेज को दे दिया। उसने अखरोट और पैसे अपने पास रख लिए और बाकी की चीजों को रखने के लिए पर्दे के पीछे खड़े आदमी को दे दिया। वापसी में मैंने सलाम तो नहीं किया, याद ही नहीं रहा।
शाम को जब दरबार खत्म हुआ तो अंग्रेज अफसर गांव घूमने निकला। गांव आकर उसने पेड़ पर लगे झण्डे को देखा। अंग्रेज गुस्से से आग बबूला हो गया। वह चिल्लाने लगा, किसने लगाया इसको। लोगों ने कहा कि साहब पता नहीं रात में किसने लगाया होगा। वह चिल्ला पड़ा, उतारो इसको। लोगों ने कहा कि साहब इतने बड़े पेड़ पर नहीं चढ़ा जाएगा। उसने कहा, तो इसको कैसे लगाया गया। लोगों ने कहा कि पता नहीं कैसे लगाया।
अंग्रेज का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। उसने कहा, काटो इस पेड़ को। इस पर गांव वाले बोलने लगे साहब पेड़ तो नहीं कटेगा, ये हमारे मंदिर का पेड़ है। अंग्रेज को लोगों के धर्म के प्रति लगाव का भान हो गया। उसने तुरन्त झंडे को उतारने के लिए कहा और अपने घोड़े में बैठकर लाव लश्कर के साथ चले गए। जाने के बाद उसने गांव का लगान बढ़ा दिया।
गांव में राजनैतिक विचारों के प्रति जागरूकता और सक्रियता की वजह से ही कड़ाकोट क्षेत्र में शिक्षा, चेतना और बेहतरी के काम करने वाले लोगों की अधिकता बाद के दिनों में भी रही।
इस घटना के दौरान अंग्रेजों के प्रति गांव के लोगों का भय और मुट्ठीभर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का अपने तरीके से विरोध करने के साहस ने बालमन पर काफी गहरा प्रभाव डाला। शायद यही कारण रहा होगा कि बड़े होकर श्रमिक आंदोलनों में सक्रियता के साथ जुड़ा रहा। जुल्म और शोषण के खिलाफ लड़ने वाले विचार को अपना पाया।

बीरबल सिंह रावत

लेखक श्रमिक संगठनों से जुड़े रहे हैं। साहित्य में भी उनकी खासी दिलचस्पी रही है।

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