
पहाड़ की पीड़ा को फिल्म में उकेरा
hys_adm | October 7, 2020 | 1 | देश-दुनिया , नया-ताजा , पहाड़ की बात , सिनेमा
कहते हैं, पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आते, लेकिन इस बात को अपने काम के जरिये खारिज करने की भरपूर कोशिश की है उत्तराखंड की बेटी सृष्टि लखेड़ा ने। सृष्टि की फिल्म ‘एक था गांव’ मुंबई फिल्म फेस्टिवल के लिए नामित हुई है। अपनी दमदार सृजनात्मकता के चलते मुंबई एकेडमी ऑफ मूविंग इमेज (मामी) द्वारा आयोजित मुंबई फिल्म फेस्टिवल में इंडिया गोल्ड श्रेणी में सृष्टि की फिल्म को जगह मिली है। 60 मिनट की गढ़वाली और हिंदी के संवादों से सजी फिल्म है ‘एक था गांव‘ (वंस अपॉन ए विलेज)। फिल्म का मुकाबला इंडिया गोल्ड श्रेणी चार फिल्मों से होगा। आइए जानते हैं, फिल्म के बारे में और रूबरू होते हैं सृष्टि लखेड़ा के संघर्ष से…

पलायन की ऊहापोह में फंसी दो पीढ़ियों की कहानी
पहाड़ की बेटी सृष्टि ने फिल्म पलायन की ऊहापोह में फंसी दो पीढ़ियों, दो राहों और दो सपनों के इर्द-गिर्द बुनी है। फिल्म के मुख्य किरदार 80 वर्ष की लीला देवी और 19 साल की युवती गोली हैं। दोनों की राहें, सपने और इरादे बिल्कुल जुदा-जुदा हैं। पलायन से खंडहर हो चुके गांवों के सन्नाटे के बीच वे दोनों ही अपने हिस्से के संघर्षों को जीते हैं। परिस्थितियां ऐसी आती हैं कि वे भी पलायन कर जाते हैं। बचती है तो सिर्फ खामोशी, खंडहर और डरावनी सी गांव की तस्वीर।

घोस्ट विलेट की पीड़ा बयां करती है फिल्म
पहाड़ के ‘घोस्ट विलेज’ यानि भूतहा हो चुके गांवों की पीड़ा और हकीकत को बयान करती फिल्म करती है ‘एक था गांव’। फिल्म में गांव के चूल्हे, घर-आंगन से लेकर जल-जंगल-जमीन को बहुत ही शानदार तरीके से उकेरा गया है। 80 वर्षीय लीला देवी, 19 वर्षीय युवती गोली और दिनेश भाई के रोजमर्रा के कामों में सहजता से होने वाली बातचीत को गंभीरता के साथ दर्ज किया गया है। फिल्म में लीला देवी अपनों के पलायन करने और उनको बार-बार पलायन के लिए कहने के बावजूद गांव में ही रहना पसंद करती हैं। वहीं गोलू को उजड़ चुका गांव उजाट और निराशा से भरा लगता है। वह शहरों में अपना भविष्य बनाने की जुगत में रहती है। आखिरकार परिस्थिति ऐसी आती है कि दोनों को गांव छोड़ना पड़ता है। लीला देवी अपनी बेटी के पास देहरादून चली जाती है, जबकि गोलू उच्च शिक्षा के लिए ऋषिकेश चली जाती है।

अपने गांव के पलायन पर बनाई फिल्म
अपनी फिल्म के बारे में सृष्टि कहती हैं कि उन्होंने अपने गांव में हुए पलायन पर यह फिल्म बनाई है। हालांकि यह उनके गांव की ही नहीं, बल्कि पूरे पहाड़ की कहानी है, जहां हजारों की संख्या में ऐसे गांव और ऐसे पात्र देखने को मिल जाते हैं। सृष्टि मूलरूप से टिहरी जनपद के कीर्तिनगर विकासखंड के सेमला की रहने वाली हैं। वह अपने परिवार के साथ ऋषिकेश में रहती हैं। विगत एक दशक से वह फिल्म जगत में काम कर रही हैं। मामी फिल्म फेस्टिवल की वेबसाइट पर बताया गया कि कोविड-19 के चलते इस बार आयोजन नहीं हो सका। इसको अक्टूबर 2021 में किया जाना प्रस्तावित है, जिसकी तिथियां इस साल के अंत तक घोषित की जाएंगी। आशा है अपनी समसामयिक विषयवस्तु और दमदार स्टोरी के चलते यह फिल्म अव्वल स्थान हासिल करेगी। इस फिल्म को स्विट्जरलैंड के विज़न्स डू रील फेस्टिवल डॉक्यूमेंट्री फेस्टिवल की मीडिया लाइब्रेरी में भी रखा गया है।

युवाओं को प्रेरणा बनेगा सृष्टि का काम

सृष्टि और उनकी टीम अपने नवाचारी तरीकों के जरिये उत्तराखंड के फिल्म जगत के लिए राहें खोली है। उन्होंने अपनी फिल्म के प्रमोशन और प्रचार प्रसार के लिए सोसल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म का जिस तरह उपयोग किया, वह बेहतर प्रभावी दिखता है। साथ ही फिल्म निर्माण और उसको दर्शकों और समीक्षकों तक पहुंचाने के लिए ऑनलाइन क्राउड फंडिंग का भी उपयोग किया। उनके इन प्रयासों को जनता ने भी काफी सराहा है।सीमित संसाधनों में उत्तराखण्ड में काम कर रहे रंगकर्मियों और फिल्म निर्माण से जुड़े लोगों के लिए सृष्टि ने अपने काम के जरिये प्रेरणा दी है। इससे भविष्य में इस क्षेत्र के उत्साही युवा प्रेरित होंगे।