उत्तराखंड आंदोलन की ताकत थीं महिलाएं
hys_adm | October 1, 2020 | 0 | कॉलम , देश-दुनिया
दो अक्टूबर (रामपुर तिराहाकांड) उत्तराखंड के लोगों के लिए वह टीस है, जिसकी पीड़ा और घाव समय भी नहीं भर सकता है। सत्ता और आंदोलनकारियों के बीच चले इस आंदोलन ने कई दौर देखे हैं। आंदोलनकारियों की एकजुटता, जोश और बलिदान से नए राज्य का गठन संभव हो पाया। वह अलग बात है कि राज्य की रीति-नीति को लेकर आंदोनकारी बहुत उत्साहित नहीं हैं। आंदोलन की यादों को ‘हिमालया लवर्स’ के पाठकों को हम उपलब्ध करा रहे हैं उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमोली की जुबानी…
पहली किस्त………..
एक अकेली महिला के बल पर केंद्रीय संस्थानों पर लटक जाते थे ताले
यह बात सब जानते हैं कि उत्तराखंड आंदोलन नब्बे के दशक का सबसे बड़ा जन आंदोलन था। ऐसा आंदोलन, जिसमें गोदी के बच्चे लेकर 80 साल के बुजुर्ग लोगों की भागीदारी थी। आंदोलनकारी बेबिरानी भट्टाचार्य अपने छोटे-छोटे बच्चों को कंधे में बिठाकर रैली और धरना-प्रदर्शन में शामिल होती थीं। एक दिन तो जेल भरो आंदोलन में भी वह बच्चों को साथ लेकर आ गईं। कई परिवार तो ऐसे थे, जिनकी तीन-तीन पीढियां सक्रिय थीं।
आंदोलन के दौरान आए दिन बंद और चक्काजाम का ऐलान होता था। बंद का मतलब बंद होता था। हर मोहल्ले और इलाकों की महिलाएं अपने क्षेत्र के सभी सरकारी दफ्तरों को बंद करवाती थीं। बंद करवाते वक्त महिलाएं समूह में निकलती थीं। जैसे महिलाएं आती राज्य सरकार के ही नहीं केंद्र सरकार के देहरादून स्थित आईआईआरएस, सर्वे ऑफ इंडिया के दफ्तर, रायपुर स्थित डिफेंस से जुड़े संस्थान और ओएनजीसी जैसे संस्थान को खाली करवा दिए जाते थे।
इन संस्थानों की अपनी सुरक्षा व्यवस्था और साथ में लोकल पुलिस के बाद भी किसी की हिम्मत नहीं होती जो यह कह दे दफ्तर बंद नहीं होगा। आंदोलनकारी महिलाओं का समूह जब आगे बढ़ता तो हर केंद्रीय कार्यालय के मुख्य गेट पर एक महिला को बिठा दिया जाता था। इसके बाद इसी महिला की जिम्मेदारी होती कि दोबारा दफ्तर न खुले और न कोई अधिकारी और कर्मचारी अंदर जा सकें। एक अकेली महिला एक लाठी के बल पर दोपहर तक गेट पर मोर्चा संभालती थी। टाइम पास के लिए साथ मे स्वेटर बुनने के लिए ले जाती और दो चार घंटे यही होता। तब समाचार पत्रों में ऐसी फोटो खूब छपती थी। यदि आज के दौर का मीडिया और सोशल मीडिया होता तो शायद इस तरह की तस्वीरें सबसे ज्यादा वायरल होतीं।
ऐसा भी नहीं कि महिलाओं को इस दौरान पुलिस और पीएसी के जुल्मों का सामना न करना पड़ा। एक दिन तो रायपुर क्षेत्र में पीएसी के जवानों ने एक गर्भवती महिला के पेट पर लात मारकर बुरी तरह घायल कर दिया। जब बाजार में आंदोलनकारियों को पता चला तो इसके विरोध में पुलिस कंट्रोल रूम को घेर दिया। दोनों तरफ से पथराव हुआ और कुछ लोग घायल भी हो गए। इसके बाद भी कुछ आंदोलनकारी वहीं धरने पर बैठ गए। पुलिस ने रविन्द्र जुगरान, संतन रावत और शायद विनोद चमोली आदि को गिरफ्तार कर बरेली जेल भेज दिया। इन लोगों की 20 दिन बाद रिहाई हुई।
सरकारी आवास खाली करवाने की मिली थी धमकियां
उत्तराखंड आंदोलन के दौरान जिला प्रशासन और पुलिस ही नही कई अन्य विभागों के अधिकारी भी आंदोलन को तोड़ने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ते थे। घंटाघर और आसपास के क्षेत्र में होने वाली आंदोलन की गतिविधियों में पीएंडटी कॉलोनी (चकराता रोड पर प्रभात सिनेमा हॉल के ठीक पीछे चुक्खु मोहल्ला) की महिलाएं शामिल न हों ऐसा होता नहीं था। जब कभी भी बंद की कॉल होती तो महिलाएं पोस्ट ऑफिस और दूर संचार विभाग पर ताले डालने पहुंच जाती। तब यह भी खूब मजाक किया जाता था कि कॉलोनी की महिलाएं सुबह अपने पतियों को तैयार करके भेजती हैं और पीछे से ऑफिस बंउ करने भी आ जाती हैं।
विभागीय अधिकारियों ने महिलाओं को डराने के लिए एक चाल चली। पीएंडटी कॉलोनी में नोटिस चस्पा करवा दिए कि यदि कोई महिला दफ्तर बंद करने आई तो उनसे सरकारी आवास खाली करवा दिया जाएगा। बताया जाता है कि तब ऐसे नोटिस कई और सरकारी कॉलोनियों में भी चस्पा किए गए थे।
यह बात कालोनी से निकलकर अन्य आंदोलनकारियों तक पहुंच गई। नोटिस का तोड़ आंदोलनकारियों ने निकाल डाला। तय हुआ कि जब भी दूरसंचार विभाग और पोस्ट ऑफिस को बंद करना हो तो पीएंडटी कॉलोनी की महिलाएं शामिल नहीं होंगी। इस कॉलोनी की महिलाएं अन्य विभाग के कार्यालय बंद करने जाएंगी। पोस्ट ऑफिस और दूरसंचार कार्यालय को बंद करवाने की जिमेदारी उससे लगे क्षेत्र की महिलाओं को दी गई। इसके बाद इसी रणनीति पर आंदोलन होता रहा, जिससे अधिकारी कुछ नही कर पाते थे।
जब जज के आवास के बाहर धरने पर बैठ गए थे आंदोलनकारी
उत्तराखंड आंदोलन के दौरान बहुत बार ऐसे मौके आए, जब यह बात साबित हुई कि जन दबाव से बढ़कर कोई ताकत नहीं। इसी जन की ताकत के आगे बड़े-बड़ों को चुप्पी साधते देखा है। क्या आप सोच सकते हैं कि कोई जज के आवास के बाहर धरना प्रदर्शन कर दे और उनके खिलाफ कोई कार्रवाई न हो। कम से कम आज ऐसा सपना भी नहीं देखा जा सकता, लेकिन राज्य आंदोलन के दौरान यह हुआ है।
आंदोलन के दौरान देहरादून में मारपीट और सरकारी कामकाज में बाधा पहुंचाने के मामले में कुछ महिलाओं की गिरफ्तारी हुई थी। दो से तीन दिन बीत जाने के बाद भी उनकी जमानत नहीं हो पाई थी। इसी बीच पूर्व सैनिकों की तरफ से रैली कॉल की गई थी। रैली परेड ग्राउंड से शुरू हुई। शहर के कई इलाकों से गुजरकर वापस परेड ग्राउंड में समाप्त हुई। रैली में पूर्व सैनिकों के अलावा युवा और महिलाएं भी शामिल हुईं। रैली समाप्त होने से पहले उत्तराखंड महिला मंच तब प्रगतिशील महिला मंच की कमला पंत ने मंच से माइक थाम लिया। उन्होंने इस बात पर नाराजगी जताई कि किसी ने उन महिलाओं के लिए आवाज नहीं उठाई जो जेल में बंद हैं। उन्होंने ही बताया कि कुछ महिलाओं के बच्चे इतने छोटे हैं कि उनको मां का दूध ही पिलाना होता है। उनके परिजन परेशान हैं, इसलिए हम यहीं से जज के आवास के बाहर धरना देकर उन महिलाओं को जमानत देने की मांग करेंगे।
बस फिर क्या था रैली में शामिल लोगों में से अधिकांश कमला पंत के पीछे-पीछे चल दिए। ईसी रोड पर द्वारिका स्टोर के आसपास जज के आवास के गेट पर महिलाएं धरने पर बैठ गईं और जमकर नारेबाजी की। यहां पर कई महिलाओं पर देवी देवता भी अवतरित हो गए।
जारी… दूसरी किस्त
लेखक अनिल चमोली वरिष्ठ पत्रकार हैं। देहरादून में इस वक्त सेवाएं दे रहे है। जनसरोकारों से जुड़े विषयों पर लिखते रहते हैं। देहरादून में उत्तराखंड आंदोलन में सक्रिय रहे। यह लेख राज्य आंदोलन से जुड़े उनके संस्मरणों की शृंखला का हिस्सा है। उनकी यह शृंखला खासी पसंद की जा रही है।