पढ़ाई की नई परिभाषा गढ़ता अर्चना का ‘स्कूल’
hys_adm | October 22, 2020 | 1 | शिक्षक , शिक्षा , स्कूल
एक स्कूल, जहां 6 साल से लेकर 20 साल तक के बच्चे पढ़ते हैं। शिक्षक और बच्चे मिलकर खेतों में काम करते हैं, अपना खाना बनाते हैं और एक-दूसरे को सीखने में मदद करते हैं। साथ मिलकर संगीत गाते और रचते हैं। फिर साल में महीने भर देश के कौने-कौने घूमते हैं। है न अजीब सी बात। जी हां ऐसा ही सपनों का स्कूल है रूद्रप्रयाग जनपद के गुप्तकाशी कस्बे से सटे खुमेरा गांव में। जिसको बीते 12 साल से चला रही हैं अर्चना बहुगुणा।
इस काम की शुरुआत के बारे में अर्चना बताती है कि हमने अपने काम की शुरुआत 2009 में शुरू किया। वर्तमान में हमारे सेंटर में 20 बच्चे रहते हैं साथ ही हमारे पास 15 युवाओं की टीम है, जिन्हें हम सीनियर टीम बोलते हैं। इस पूरे काम का कांस्पेप्ट है लर्निंग स्पेस। यानि ऐसी जगह जहां सीखने की जगह और वातावरण हो। इसी लिये हमने अपने सेंटर का नाम स्पेस फॉर नर्चरिंग क्रियेटिविटी-श्यामा वन रखा है। जहां पर बच्चे अपनी पूरी क्षमता के साथ में बढ़ सकें। हमारा यह सेंटर एक आवासीय केन्द्र है जहां रहने वाले बच्चे या उनको सीखने में मदद करने वाले शिक्षक दिन-भर की तमाम गतिविधियों को मिलकर करते हैं।
अर्चना अपने सेंटर के बारे में बताती हैं कि, स्कूलों में जिस तरह से आम तौर पर पढ़ना-लिखना होता है हम वैसा नहीं करते। हमारा मानना है कि सिर्फ चीजों को याद करने के लिये पढ़ना फिजूल है। हमारा कांसेप्ट यह है कि चीजों की गहरी समझ वाले संवेदनशील बच्चे तैयार हों, जो कि एक स्वस्थ्य समाज की रचना कर सकें। सभी चीजें स्कूल की पाठ्यक्रम या किताबों में हो ऐसा जरूरी नहीं है। शिक्षक और बच्चों के बीच सीखने में अमूमन एक हेरारकी बनी रहती है। शिक्षकों को लगता है कि मुझे आता है और बच्चों को भी कई बार लगता है कि उन्हें सबकुछ नहीं आता है। लेकिन उन्हें मानना ही पड़ता है कि हमारे ऊपर शिक्षक नामक अथॉरिटी हैं। हमने इस यह सिस्टम को ब्रेक करने की कोशिश की है।
हम अपने सेंटर में कुल 30-35 सदस्य रहते हैं। हम साथ मिलकर एक दूसरे के साथ मिलकर काम करते है, चीजों को समझने की ओर बढ़ते हैं और इस प्रक्रिया में कुछ-कुछ एक-दूसरे से सीखते हैं। यानि साथ में मिलकर जिओ, साथ में मिलकर सीखो। हमारे यहां सीखने और सिखाने वाले दो धड़े नहीं बल्कि हर वक्त एक-दूसरे को सीखने में मदद करने वाले और एक-दूसरे से सीखने वाली एक टीम होती है।
वह बताती हैं कि सेंटर पर जो स्कूल चलता है उसके अलावा यहां 12 सरकारी स्कूलों के साथ मिलकर काम करते हैं। उनमें भी यही चीजें हम लोग कराते हैं। हम शिक्षकों के साथ मिलकर काम करते हैं। उनके स्कूलों के बच्चों के साथ भी ऐसी प्रक्रियाएं करते हैं जिससे बच्चे एक्सप्लोर कर पाये। सरकारी शिक्षकों के साथ चल रहे इस काम को हमने शिक्षक संवाद नाम दिया है।
गुप्ताकाशी जैसी जगह में रहकर उनके सेंटर के बच्चे देश-दुनिया से कैसे जुड़ पायें इस सवाल के जवाब में अर्चना कहती हैं कि, हमारे सेंटर में देश-विदेश से वॉलियंटियर आते हैं। उनके साथ बच्चे संवाद और मिलकर काम करते हैं। इस प्रक्रिया में बच्चे देश-दुनिया को सहजता से जानने लगते हैं। इसके अलावा हम साल में एक महीने के लिए बच्चों को उत्तराखंड से बाहर के राज्यों में लेकर जाते हैं। इस दौरान हमारा सेंटर बंद रहता है। अभी तक हमने दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि राज्यों में गये हैं।
हम उन जगहों पर जाने की कोशिश करते हैं जहां-जहां से हम लोगों को निमंत्रण मिलता है। हमारे बहुत से परिचित हैं जो शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाएं चलाते हैं या उनमें काम करते हैं। उन्हें पता रहता है कि हम लोग एक महीने के लिए बच्चों के साथ विभिन्न जगहों पर जानने समझने के लिए जाते हैं। ज्यादातर वह संस्थाए जो वैकल्पिक शिक्षा पर काम कर रही हैं, उनके यहां जाने की प्राथमिकता रहती है। कई बार ऐसा भी होता है कि किसी का बड़ा घर है, उनके यहां भी हम लोग रुकते हैं। फिर जहां हम लोग जाते हैं, वहां के भूगोल, इतिहास, संस्कृति का अध्ययन करते हैं। वहां के ऐसे लोग जो विभिन्न मुद्दों पर काम करते हैं उनके साथ संवाद करते हैं। उनके साथ बातचीत करने और उनके काम को देखने से उस जगह और काम को लेकर हमारी समझ बनती है। हम घूमने के लिहाज से भी ऐसी जगहों पर ज्यादा जाते हैं जो अपने आप में ऐतिहासिक हों। विगत सालों में हमने ऐसे संस्थानों में भी गये हैं जो वैकल्पिक तरीकों से अच्छा काम कर रहे हैं।
संस्था को चलाने के लिए आर्थिक मदद के बारे में अर्चना कहती हैं कि, हमें ज्यादातर व्यक्तिगत रूप से लोग आर्थिक मदद करते हैं। बहुत से लोग हैं जो हमारे काम को समझने आते हैं या किसी के माध्यम से हमारे काम के बारे में जानते हैं और इसको करने के लिये भी आर्थिक मदद करते हैं। वे कहती हैं कि यदि आपको किसी का काम पसंद आता है, उस काम के उद्देश्य, प्रक्रिया और परिणाम की आपको समझ होती है और आपको लगता है कि यह काम तो बिल्कुल होना ही चाहिए तो निश्चित रूप से आप मदद करने लगते हैं। हमने सरकारी एजेंसी से आर्थिक मदद की अभी सोची नहीं है और न ही किसी बड़ी एजेंसियों से कोई आर्थिक मदद ली है।
बच्चों के चयन की करने के बारे में अर्चना बताती हैं कि बच्चों के चयन को लेकर हमारा कोई क्राइटएरिया नहीं है, लेकिन हम माता-पिता के साथ गहन संवाद करते हैं आप उसको इंटरव्यू कह सकते हैं। जो पैरेंट्स हमारे द्वारा अपनाई गई जीवन शैली और शिक्षा पद्धति से सहमत होते हैं। साथ में वह खुद भी अपने आप में बदलाव की संभावना देखते हैं। बच्चों की शिक्षा को लेकर उन्हें सचमुच लगता है कि शिक्षा सिर्फ किताबों तक सीमित नहीं है। शिक्षा केवल स्कूल तक सीमित नहीं है, बल्कि जहां जीवन के जिस क्षेत्र में हम जाते हैं, जिस भी चीज के संपर्क में हम जाते हैं, वहां हमको सीखना पड़ता है और वहां हमको सीखना ही होता है। अगर हम घर पर हैं, किचन के कांटेक्ट में हैं तो हमें उसी के बारे में सीखना पड़ता है। हमें संबंधों के साथ में जीना, व्यवहार करना, सीखना होता है। जिसको ऐसा लगता है कि जीवन के हर क्षेत्र में शिक्षा है और उसको सीखना चाहिए। जिन पैरेंट्स को ऐसा लगता है कि उनके बच्चों के लिए ऐसा माहौल होना चाहिए। हम उनके बच्चों को लेते हैं। इस प्रक्रिया मे हम बच्चों का इंटरव्यू नहीं लेते। हमारे पास पूरे उत्तराखण्ड से छह साल से लेकर के 15 साल तक के बच्चे हैं। कुमाऊं गढ़वाल दोनों रीजन से बच्चे हैं। हमारे पास झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान से भी बच्चे आते हैं। अभी लॉकडाउन के बाद न जाने क्या होगा, लेकिन अभी तक हमारे पास सारे जगहों से बच्चे आते हैं।
हमने जिस उद्देश्य से शुरू किया था, हमारी उस सोच से ज्यादा हमको रिजल्ट मिला है। हमनें यह सोचा था कि हम लोग एक परिवेश बनाएंगे और उस परिवेश के अंदर बच्चे खुद से सीखना शुरू करेंगे। क्योंकि हमारा उद्देश्य बच्चों को सीखाना नहीं है, लेकिन हमारा उद्देश्य यह निश्चित रूप है कि बच्चों के अंदर सीखने वाला मन पैदा हो। बच्चे के अंदर सीखने की उत्सुकता जागृत हो पाए। यदि बच्चा सीखना चाहता है तो उसी तरह का मन और माइंड डेवलप होता है। वह सीखने की तरफ उन्नमुख होता है। वह खोजने लगता है, चीजों के बारे में जानने की ओर बढ़ता है।
अर्चना कहती हैं, हम लोगों का उद्देश्य यह था कि हम बच्चों के अंदर एक सीखने वाला क्रियेटिव माइंड डेवलप करें। बच्चों के अंदर सीखने की रूचि पैदा हो। हम लोगों ने प्रायोगिक तौर पर इसको शुरू किया था। बच्चों के सीखने को लेकर हमारा अनुभव है कि जब हम समग्रता में चीजों को करते हैं तो उन्हें एल्फाबेट सीखने को लेकर जूझना नहीं पड़ता। बल्कि बच्चे सीधे पढ़ना सीख लेते हैं। बहुत से पैरेंटस बताते हैं कि पहले उनके बच्चे स्कूल जाने के लिए आनाकानी करते थे। लेकिन वही बच्चे हमारे यहां आज के दिन 12-13 साल की उम्र में ही दो-तीन हजार किताबें पढ़ ली हैं। ये किताबें उनके सिलेबस से अतिरिक्त हैं।
हमारा अनुभव रहा है कि म्यूजिक बहुत प्रभावी और अच्छे परिणाम देने वाला होता है। म्यूजिक को समूह या कक्षाओं में सीखने की प्रक्रिया तो होती है लेकिन यह अपने आप से सीखने वाला होता है। उन्हें ताल-बीट का ज्ञान होने के बाद खुद ही शुरू करना होता है। हमारे सेंटर में जो भी बड़े आयोजन होते हैं, उनमें हमारे 12-13 साल के बच्चे ही एंकरिंग करते हैं। हजार दो हजार लोगों के बीच में वह एंकरिंग कर लेते हैं जिससे उनका कॉन्फिडेंश लेवल बढ़ता है। इसको लेकर हमने जितना सोचा था उसका रिजल्ट उससे ज्यादा बेहतर रहा है।
इस काम में आ रही चुनौतियों को लेकर अर्चना कहती हैं कि, जब हम किसी रास्ते पर चलते हैं तो दरिया, पहाड़, खाई आती है। यही हकीकत और सच्चाई है। लेकिन अंतिम लक्ष्य भी होता है। इन तमाम चुनौतियों को पार पाकर ही लक्ष्य मिलता है। हमारे लिये भी इस काम में बहुत सारी चुनौतियां थीं। बच्चों की पूरी जिम्मेदारी हमारे ऊपर है। उनकी सुरक्षा, देखभाल और बेहतर सीखना ये सब एक साथ होना बड़ी जिम्मेदारी है। हमारे पास अलग-अलग उम्र के बच्चे हैं उनकी उम्र और स्वभाव के अनुसार उनकी केयर चाहिए। हमने बहुत छोटी-छोटी बातों का ख्याल रखा और बेहतर परिवेश का निर्माण किया जिसकी वहह से बच्चे कभी घर जाने के लिए तैयार नहीं होते हैं।
इन सबमें बड़ी चुनौती हमारे लिए आर्थिक संसाधन की है। अनाथ बच्चों के आश्रम चलाने या गरीब बच्चों के साथ काम करने में डोनर्स मदद करते हैं। लेकिन हम इस क्राइट एरिया में काम नहीं कर रहे हैं हमारे यहां तो हर पृष्ठभूमि के बच्चे आते हैं। दूसरा बच्चों को बाहर ले जाना खासा जिम्मेदारी भरा काम है। 20 बच्चों का ग्रुप हम अगर मुंबई ले जाते है तो वहां जिस तरह का रस है, उसको देखते हुए बच्चों को ले जाना अपने आप में चुनौतिपूर्ण है। उस समय के लिए वह एक तरह से चैलेंज है।
अर्चना बताती हैं कि हम सोचते हैं कि भविष्य में इस तरह के सेंटर इतने फैल जाएं कि बच्चे इसी विचार और अनुभवों के अनुरूप विभिन्न क्षेत्रों में काम करें। हमारे चार-पांच साथियों ने इस तरीके का अपना काम शुरू भी किया है। हम मानते हैं कि पूरे भारत में एकदम से इस तरह से कोई क्रांति नहीं होगी लेकिन धीरे-धीरे ही सही बेहतर बदलाव के अंकुरण फूट सकें यह उम्मीद है। यही हमारी योजना भी है और इसी के लिये काम भी कर रहे हैं। भविष्य में इस सोच से लबरेज युवाओं की टीम तैयार हो इसकि लिये हम युवाओं के साथ काम कर रहे हैं।
ध्यानार्थ : नवरात्र विशेष सीरीज की यह छठवीं कड़ी है। नवरात्र के नौ दिन हम आपको शिक्षा, कला, संस्कृति, खेल, उद्योग, स्वरोजगार, राजनीति आदि क्षेत्रों में काम करने वाली उत्तराखंड की बेटियों की कहानी से रूबरू करा रहे हैं, तो फिर जुड़े रहिए हमारे साथ।
बहुत सुंदर प्रयास है।अगर आटिज्म से पीड़ित बच्चो ।के लिए कोई इस तरह का केंद्र हो तो कृपया मुझे इन्फॉर्म करे ।मेरे दोनो पुत्र ऑटिस्टिक हैं।