मैं रोता-सिसकता मलेथा का सेरा हूं…
hys_adm | October 11, 2020 | 1 | कॉलम , पहाड़ की बात , विकास
‘मलेथा’ ऋषिकेश-श्रीनगर-बदरीनाथ हाईवे पर पड़ने वाला टिहरी जनपद का एक ऐतिहासिक गांव है। माधो सिंह भंडारी का नाम तो आपने सुना ही होगा। गढ़वाल के महान योद्धा, सेनापति और कुशल इंजीनियर माधो सिंह भंडारी, जिन्होंने आज से लगभग 400 साल पहले पहाड़ का सीना चीरकर नदी का पानी अपने गांव पहुंचाया था। इसके बाद मलेथा गांव की बंजर जमीन हरी भरी हो गयी। लेकिन इसके मशहूर सेरे (संचित खेत) अब पहाड़ में ‘छुकछुक गाड़ी’ के ‘सपने’ की भेंट चढ़ गए हैं। इनदिनों कर्णप्रयाग रेल लाइन के लिए लगी बड़ी-बड़ी मशीनों से ये खेत थर्रा रहे हैं। मलेथा के खेतों की वीरतापूर्ण, ऐतिहासिक, दर्दभरी और भावुक कर देनी व्यथा को उसी जुबां में बयां कर रहा है वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमोली का यह लेख…
करीब चार सौ साल के कालखण्ड में मेरे सामने बहने वाली अलकनंदा और पीछे बहने वाली चंद्रभागा नदी में कितना पानी बह गया होगा मैं नहीं जानता। मैंने इतने सालों में न जाने कितनी विपदा और आपदाओं को देखा। मैंने 57वीं की भुखमरी भी देखी और 2013 की आपदा जब अलकनंदा मेरे असितत्व मिटाने को आतुर दिख रही थी। मैंने राजा महीपति शाह से मनु जयेंद्र को देखा। क्या नहीं देखा मैंने। मैं मलेथा का सेरा हूं। पहचाना आपने, पहचान कैसे नहीं सकते। मेरे सामने गुजरने वाले ऋषिकेश-बद्रीनाथ हाईवे से तुम सैकड़ों बार गुजरे। जब भी गुजरे मेरी हरियाली को देखने के लिए तुम सब ने बस की खिड़की ख़ोली। कई बार तुम अपनी गाडियों से उतरे और कैमरे में कैद किया मुझे। बसों में बैठकर तब तक निहारा, जब तक मैं ओझल नहीं हो गया। मैं मलेथा का रोता कराहता सेरा हूं, जानता हूं कि इन सैकड़ों सालों में कितनी बार यह अलकनंदा अपने तटों को तोड़कर मेरी छाती के ऊपर से होकर गुजरी। मैं हर बार मार खाकर तुम्हारे लिए उपजाऊ बनी।
न ढोल-दमाऊ की थाप, न माधो के पावड़े की गूंज
मैं जानता हूं कि मेरी बंजर छाती को उपजाऊ बनाने के लिए माधो सिंह ने क्या नहीं किया। अपनी पत्नी को मलेथा लाने के लिए उसने कैसे छेनड्डाधार के पहाड़ को चीर डाला। ऐसा चीरा कि आज के इंजीनियर भी जब देखते हैं तो उनकी आंख फटी की फटी रह जाती है। मैं मलेथा का रोता हुआ सेरा हूं। मैंने विकास की लंबी यात्रा देखी। पचास का दशक देखा जब राजा नरेन्द्र शाह ने देवप्रयाग से कीर्तिनगर तक सड़क बनाई। तब भी मेरी लाज रखी गई। सड़क भी बनी और मैं भी जिंदा रहा। अरे 2014 की बात तो है, जब तय हुआ कि मेरे सामने वाली पहाड़ी पर स्टोन क्रशर लगेंगे। तब तुम ही सड़कों पर उतरे थे मुझे बचाने के लिए। तब तुमने ही तो कहा था कि क्रशर लगेंगे तो हरियाली मिट जाएगी। अब क्या हुआ जब मेरी छाती चीरने लगी और तुम तमाशा देखते रहे। अषाड़ का महीना पहली बार ऐसा गुजरा न ढोल-दमाऊ की थाप थी और न मेरे माधो के पावड़े गाए गए। मैं मलेथा का सेरा हूं।
अब समूण कहां से भेजोगे सात समंदर पार
मलेथा, सेमवाल गांव और बोंगा वालों मैं आज धै लगा रहा हूं। टक लगाकर सुनो कि आखिर क्या गलती हुई थी मुझसे। क्यों मुंह मोड़ लिया तुमने। एक विकास की ऐतिहासिक कहानी पर दूसरे विकास की ऐसी पटकथा लिखी जाएगी, मैंने नहीं सोचा था। मेरी छाती पर तुम्हारे नंगे पांव और तुम्हारे बैलों के खुरदरे खुर की गुदगुदी लगने की बजाय छुकछुक चलती रेल गाड़ी दौड़गी, ऐसा सपना मैंने नहीं देखा था। मैं मलेथा का सेरा हूं। सुनो तीनों गांवों के लोगों क्या मैंने तुम्हारे अन्न के भंडार नहीं भरे थे। क्या मेरे रहते हुए कभी तुम्हारे कोठार और घिलडा खाली थे। तुम कोदा-झंगोरा खाते थे और मैंने साठी, गेहूं और चिना उगाकर दिया। मैं मलेथा का सेरा हूं। मैंने केवल तुम्हारा ही पेट नहीं भरा। मेरी छाती पर उगे साठी (धान) से तुमने बुखना और चूड़ा बनाए। उसकी खुशबू दिल्ली, मुंबई छोड़ो सात समंदर पार तक पहुंची। अब ये समूण कहां से भेजोगे। मैं मलेथा का सेरा हूं। आखिर क्या खता हुई थी मेरे से। चिना की रोटी और उसका भात कहां से खाओगे। समुण में अपनी नाते रिश्तेदारी में क्या दोगे। शायद तुम लोगों को मेरे खेतों के चावलों की खुशबू रास नहीं आई।
एक सुरंग से हरियाली आई, और दूसरी से गई
तुम भूल गए हो कि मेरे खेतों के चावल के लिए कैसे तुम्हारे रिश्तेदार भी तरसते थे। इन्हीं महीनों (सितंबर-अक्टूबर) में तो वह रैबार भेजकर तुम्हे बताते थे कि एक आध दोण साठी हमारे लिए भी रख देना। इन्हीं दिनों में तो तुम गुलाबी ठंड में अंधेरा छंटने से पहले साठी मांडने के लिए यहां पहुंच जाते थे। दिन की चटक धूप में भी तुम मेरा साथ नहीं छोड़ते थे। खेतों के बीच में दूर-दूर तक पेड़ों की छांव नहीं थी, पर तुमने कभी शिकायत नहीं की। मैं मलेथा का सेरा हूं। विकास की लंबी यात्रा देखी मैंने। स्वर्णिम चतुर्भुज योजना में भी तो यह ऋषिकेश-बदरीनाथ हाईवे चौड़ा हुआ था। तब तो मेरी छाती में मलबा भी नहीं गिरा और मैंने भी कोई शिकायत नहीं की। तुमने सड़क से सटे खेतों को बेचकर कंक्रीट के जंगल खड़े करवाए तब भी मैंने न टोका न रोका, क्योंकि तब तक मेरा वजूद जिंदा था। मुझे क्या मालूम था कि एक सुरंग ठंडा पानी लाकर मेरी प्यास बुझाएगी तो दूसरी सुरंग से लोहे के चक्के वाली रेलगाड़ी मेरी मजबूत बाजु की हड्डियों को चकनाचूर कर देगी। मैं मलेथा का सेरा हूं।
आज मैं खुद विकास की बलि चढ़ गया
मैं माधो सिंह भंडारी की कर्मस्थली मलेथा का सेरा हूं। मेरी वीरगाथा जानने वाले जानते हैं कि मैं कभी डरा नहीं डिगा नहीं, लेकिन अब मुझे डर लगने लगा है। लक्ष्मोली तक रेल की सुरंग पहुंच गई है, जैसे-जैसे पहाड़ों को काटने वाली मशीनों की आवाज मुझे सुनाई देती है, मेरे दिल की धड़कन बढ़ने लगती है। मुझे अहसास होने लगा कि अब बहुत ज्यादा वक्त नहीं बचा है। मशीनों के शोर से अब अलकनंदा के बहने की आवाज भी मुझे सुनाई नहीं देती। मैं मलेथा का सेरा हूं। आपको पता है कि मैं भी कभी आसपास के पथरीले खेतों जैसे था। माधो सिंह सुरंग बनाकर पानी लाया और तुम्हारे पूर्वजों ने इन खेतों को बनाया। कितनी मेहनत की होगी। जब मेरी धरती फल फूल रही थी तो तुम सब साथ में थे, आज मैं अपनी वेदना के साथ अकेला हूं। सामने कांडा की देवी गवाह है। मैंने चार सौ सालों में क्या-क्या नहीं दिया। मैं मलेथा का सेरा हूं। हल लगाते वक्त सीना तो तुमने भी चीरा था पर उसकी कोई शिकवा शिकायत नहीं की। वह मेरे जीवन का हिस्सा था। कभी विकास के लिए मैंने बलिदान मांगा और आज मैं खुद विकास की बलि चढ़ गया। समय के इस चक्र को मैं समझ नहीं सका और तुम साथ नहीं दे सके।
सुनो प्रवासियों जब तुम त्योहार पर घर लौटोगे तो…
मैं मलेथा का सेरा हूं। गौर से सुनो डांगचोरा, दुगड्डा, बडोन, दिउली, पेकण्या, कपरोली, डागर पट्टी, पैंडुला, न्यूली, पाब, सेमला, काटल, कंडोली, टकोली, टोलु, मैंखंडी, जखण्ड, कांडीखाल, पौखाल वालों, जब भी तुम छेनाड़ाधार पर पहुंचते थे तो मेरे खेतों की हरियाली तुम्हारी आंखों को एकटक होकर निहारने को मजबूर करती थी। मेरे खेतो की लहलहाती फसल खुशहाली के गीत सुनाती थी। अलकनंदा के बहने की आवाज भी इसके साथ मिलकर गुनगुनाती थी। अब यहां विकास का शोर है, अब अलकनंदा की आवाज नहीं सुनाई देगी। मैं मलेथा का सेरा हूं। सुनो मेरे प्रवासियों अब जब तुम बार त्योहार पर घर लौटोगे तो यहां सबकुछ होगा। सुरंग के अंदर से छुकछुक कर ट्रेन आएगी और फिर आगे की यात्रा के लिए सुरंग के अंदर चली जाएगी। मेरी छाती पर स्टेशन होगा। अगल बगल कंक्रीट के जंगल होंगे, शहरों की तरह का शोर होगा। इसी शोर में दबी मेरी वेदना होगी, जो किसी को सुनाई नहीं देगी। मैं मलेथा का सेरा हूं।
इस दिन के लिए खून-पसीना नहीं बहाया था…
दूधिया रोशनी में नहाई ये जो मेरी तस्वीर आप देख रहे हैं, ये सपना तो मेरा नहीं था। मैं तो सालभर खुशहाली की फसल से लकदक रहना चाहता था, जैसे पिछले चार सौ सालों से रहता रहा हूं। तुम जानते हो की वीर माधो सिंह भंडारी ने इस दिन के लिए तो खून पसीना नहीं बहाया होगा। अपने बेटे का बलिदान कम से कम ये दिन देखने के लिए तो नहीं दिया होगा। तुम जानते हो कि छेनड़ाधार के पहाड़ को चीरने में कितने साल लगे होंगे। कितना बड़ा इंजीनियर रहा होगा, माधो कभी सोचा तुमने। कैसे पहाड़ को अंदर ही अंदर खोदकर कैसे वह उसी जगह पर सुरंग को बाहर लाया जहां से मेरे खेतों तक पानी पहुंच सकता था। मैं मलेथा का सेरा बोल रहा हूं।
कभी वक्त मिले तो छांव में बैठकर सोचना
याद है न वह लोक गीत नौ खारी मरचू कु त्वेन हिसाब लाई, सर ले माधो सिंह भंडारी ले छेना फोड़ी गाड़ी कूल। सुनो नहर बनाने में जुटे लोगों ने नौ खार (एक खार 20 दोण का और एक दोण 16 पाथे का होता है एक पाथा में लगभग दो किलो यह पहाड़ में अनाज तोलने का पैमाना है) मिर्च ही खाई तो सोचो राशन कितनी लगी होगी और इससे अंदाज लगाओ कितना वक्त लगा होगा, कूल बनाने में। तुम हाईवे पर सरपट भागे और अब ट्रेन में बैठकर भागे जाओगे। सोचने का वक्त तुम्हारे पास नहीं। कभी वक्त मिले तो जो बचे आम के पेड़ हैं मेरे अगल बगल उनकी ठंडी छांव में बैठकर सोचना। इस विकास की यात्रा में क्या खोया क्या पाया। मैं मलेथा का सेरा हूं। मैंने यह कभी नहीं चाह कि तुम दुनिया के साथ न चलो, पर मैं यह भी नहीं चाहता था, तुम अपनी जड़ों से दूर हो जाओ और मुझे अकेला मेरे दर्द के साथ छोड़ दो।
लेखक अनिल चमोली वरिष्ठ पत्रकार हैं। देहरादून में इस वक्त सेवाएं दे रहे है। जनसरोकारों से जुड़े विषयों पर लिखते रहते हैं। फेसबुक पर मलेथा पर लिखी उनकी सीरीज काफी पसंद की जा रही है। यह लेख उनके फेसबुक पोस्ट से ही लिया गया है। उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े किस्से और तोता घाटी के इतिहास पर लिखी उनकी पोस्ट भी काफी पंसद की जा रही हैं।
शानदार