च्यूड़ा : पहाड़ की खेती का असली स्वाद
hys_adm | October 18, 2020 | 0 | खानपान , पहाड़ की बात
धान को भूनने, गरमा-गरम उखल तक पहुंचाने और फिर दना-दन गंज्याले यानि मूसल से उसको कूटने की पूरी प्रक्रिया किसी लयबद्ध कविता की तरह होती है। इसमें शोर के बजाय संगीत उपजता है। ऐसा संगीत जिसको कान, आंख और नाक से महसूस किया जा सकता है। जी हां, हम बात कर रहे हैं, पहाड़ में च्यूड़ा तैयार करने की प्रक्रिया की़, आइए जानते हैं उत्तराखंड के गांवों में कैसे उत्साह के साथ ताजे धान से च्यूड़ा तैयार किया हैं।
धान को पहाड़ में सबसे मेहनत से तैयार होने वाली फसल कहा जात है। खेत को तैयार करने से लेकर, सेरा लगाना, इसकी निराई गुड़ाई, फसल तैयार होने के बाद इसकी मंड़ाई पर बहुत मेहनत लगती हैै। खेत से धान को घर पहुंचाने के बाद इसके चावल इस्तेमाल करने से पहले च्यूड़ा तैयार करने की परंपरा है। च्यूड़़ा़ या खाजा को हम पहाड़ की खेती का असली स्वाद भी कह सकते हैैं। क्योंकि इसे बनाना, खाना, बेटी के ससुराल से लेकर शहर में पढ़ने वाले और नौकरी करने वाले परिवार के सदस्यों तक पहुंचाने की पूरी प्रक्रिया त्योहार की तरह उत्साह से भरी होती हैै।
उत्तराखंड के गांवों में धान की कटाई के बाद च्यूड़ा (खाजा) कूटने का काम जोरों पर रहता है। धान के भूने जाने और गरम-गरम इसको उखल में कूटने से पूरा गांव इसकी खूशबू से गमकता है। साथ ही च्यूड़े कूटने से ग्जंयाले यानि मूसल की संगीतमय आवाज मन को आकर्षित करती है। च्यूड़ा बनाने के लिए धान की सबसे बढ़िया किस्म को चुना जाता है। क्योंकि जितना बढिया धान की क्वालिटी होगी च्यूड़ा भी उतना ही स्वादिष्ट होगा। इसलिए सेरे यानी सिंचित खेेेेेेतों में तैयार धान को च्यूड़ा बनाने के लिए इस्तेमाल में लाया जाता हैै।
नई-नई धान को भिगाकर उसको चूल्हे पर कढ़ाईनुमा बर्तन जिसको ढाडू कहते हैं पर भुना जाता है। जैसे ही धान भुन जाता है, उसको गरम-गरम उरख्याले यानि उखल में डाला जाता है। जहां पहले से हाथ में गंज्याले को लेकर तैनात दो महिलाएं दना-दन कूटना शुरू करती हैं। कुछ देर कूटे जाने के बाद इसको पलटा जाता है और फिर से कुटाई चालू हो जाती है। जब धान चपटा होकर निश्चित आकार में पहुंच जाता है तो इसको फिर निकाल लिया जाता है। यह क्रम इतना सधा होता है कि कि कहीं कोई चूक की गुंजाइश ही नहीं रहती।
एक बार कूटे जाने वाले च्यूड़ों को एक घांण कहते हैं। एक घांण के कूटे जाने की प्रक्रिया पूरा होते-होते दूसरी घाण के लिए धान भूना जा चुका होता है और फिर से वहीं प्रक्रिया दोहराई जाती है। देखने में यह पूरी प्रक्रिया बहुत ही यंत्रवत लगती है, लेकिन गांवों में इस दौरान किस्से कहानियों और गपशप का पूरा जखीरा इसके साथ-साथ खुलते जाता है। इससे यह पूरी प्रक्रिया बहुत ही आनंदित और हंसी ठिठोली वाली हो जाती है। किस्सों, गप-सड़ाक, च्यूड़े की खुशबू के साथ मिलकर एक अलग ही लोक के आनंद को रचता है।
च्यूड़ा कूटे जाने के बाद कुछ हिस्से को सूप में साफ किया जाता है। इस दौरान इसमें से छुट-पुट रह गई साबुत धान को भी बीनकर अलग किया जाता है। फिर इस च्यूड़े को च्यूड़ा कूटने वाली टीम को बांटा जाता है, बाकी के च्यूड़ों को साफकर अपने प्रियजनों को बांटने के साथ घर में खाने के लिए रखा जाता है। पहाड़ में च्यूड़े में अखरोट, तिल को मिलाकर खाया जाता है।
च्यूड़ा कूटने के बाद लोग अपनी ध्याण यानी शादी हो चुकी बेटियों के ससुराल भी देने जाते हैं। जहां ध्याण इसको अपनी सखी-सहेलियों के साथ बांटकर खाने के साथ ही अपने ससुराल का बखान भी करती है। उत्तराखंड के इन गांवों में च्यूड़ा सिर्फ खाए जाने वाला खाजा मात्र नहीं है। यह यहां के लोक की यादों, अपेक्षाओं, प्रेम और साझीदारी का मिलाजुला नाम है।