पहाड़ में छानियां और उनका लोक महत्व
hys_adm | August 16, 2020 | 0 | खेती-किसानी , जीवन-शैली , पर्यावरण , पहाड़ की बात
खेती किसानी किसी बच्चे की परवरिश करने जैसा कर्म है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसकी समझ और बेहतर होती जाती है। खेत को हल से लेकर बिजाई, निराई-गुड़ाई और कटाई कब करनी है, इससे जुड़ी छोटी से छोटी बात को समझना और उसके लिए पूरी तैयारी करना ही खेती किसानी का सार है।
बात जब पहाड़ की खेती की हो तो इसको करने की चुनौतियां और बढ़ जाती हैं। पहाड़ में खेती का छितरा होना और जोतों को छोटा होना आम बात है। पहाड़ में जहां-जहां खेत बनने की गुंजाइश थी वहां-वहां खेतों को बनाने की वजह से शायद ऐसा रहा है। सिंचित खेती तो ज्यादातर गदेरों के किनारों पर ही हुआ करती है।
गर्मियां शुरू होते ही ऊंचाई की जगहों पर जाकर घास-फूस के छप्पर (छानियां) बनाये जाते हैं। इन छप्परों की जगह का चयन मवेशियों के लिए चारे, पानी और सुरक्षा को देखकर किया जाता था। छप्पर अधिकांशतः ऐसी ही जगहों पर बनाए जाते थे। इस प्रकार छप्पर जाने से दो फायदे होते थे एक तरफ पशुओं को अच्छा और भरपेट चारा मिल जाता था और दूसरा खेती के लिए पर्याप्त मात्र में गोबर की खाद।
जैसे-जैसे सर्दियां दस्तक देती हैं, वैसे-वैसे लोग अपने मवेशियों के साथ अपने मूल गांवों की तरफ लौट आते हैं। कब कहां मवेशियों को साथ ले जाकर खेती के काम को बेहतर किया जाए इसको लेकर पहाड़ के किसानों के पास मौसम आधारित कैलेण्डर रहता है।
इन अनुभव से उपजे कैलेण्डरों को सालों-साल उपयोग करने के चलते उनके मवेशी भी इससे विज्ञ होते हैं। यदि किसी कारणवश मवेशियों को डांडा ले जाने में देर हो जाए तो कई बार मवेशी भागकर खुद ही डांडा चल देते थे। ऐसे बहुत से उदाहरण कड़ाकोट क्षेत्र के लोगों से सुने हैं।
मौसम के अनुरूप हवा-पानी का बदलाव मवेशियों और किसानों के लिए काफी मददगार रहता है। हमें बचपन के दिनों की अच्छी याद है कि छानियों में बने खाने का स्वाद इतना स्वादिष्ट होता था कि वो आज भी भूला नहीं हूं। भले ही आज शहरों में कितने अच्छे रेस्टोरेन्ट में खाना खाएं, लेकिन वो लाटू बगड़ की छानियों में बनी खिचड़ी का स्वाद आज के आधुनिक रेस्टोरेन्ट के खाने के सामने कहीं नहीं टिकता। यह स्वाद सिर्फ खाने की वजह से नहीं, बल्कि वहां की हवा, पानी और कड़ी मेहनत की वजह से था।
आज भी रोजी-रोटी की दौड़-धूप के बीच कभी अपना बचपन याद आता है तो सबसे अच्छी यादें अपनी छानियों की आती है। मुझे याद है मेरे वो दोस्त जिनकी छानियां नहीं होती थी, वे अपने मां-बाप से छानियां बनाने की जिद करते थे और हमारे साथ छानियों में आते थे।
हमारे क्षेत्र में इस तरह की छानियां मुख्य रूप से तोल्यू, घरड़, बराली, तिलसौणी, भैली, पैना, बाड़ी, जन्नू क्षेत्र में हैं। ये ज्यादातर जगहें ऊंचाई की या गदेरे के किनारे वाली हैं। ऊंचाई वाले जगहों पर जाने वाले लोग इस दौरान खेती के लिए जरूरी औजार बनाते हैं जो कि वहां के जंगलों के मजबूत बांज की लकड़ी से बनते थे। जिनमें लाठ, कुदाल का हत्था, जुआ आदि प्रमुख है। बहुत से परिवार इस दौरान रिंगाल से खेती में उपयोग होने वाले चिंगरे आदि भी तैयार करते हैं। इसी तरह हमारी छानी गदेरे के किनारे लाटूबगड़ में थी, जहां हमारे काफी सारे सेरे थे। जिनमें हंसराज का बहुत ही स्वादिष्ट चावल और सरसों की खेती होती थी। बाकी बसग्याल के समय में वहां सब्जियों की खूब अच्छी खेती होती थी। हमारे खाने-पीने की ज्यादातर जरूरतें छप्पर के आस-पास की खेती से ही निकल जाती थी।
बसग्याल (बरसात) में मछली पकड़ने के लिए हम लोग गोदा बुनते थे और अपने अनुभव के अुनसार जहां ज्यादा मछलियां होती थी वहां अपना गोदा लगाते थे। पर्याप्त पानी होने के कारण गदेरे के किनारे काफी मात्र में घराट बने थे। जहां से हम अनाज की पिसाई करते थे। चोपता गदेरे के घराटों की बहुत सी यादें हैं।
मवेशियों को छानियों में ले जाने और वापस लाने के लिए मुख्य रूप से वनभैरव की पूजा की जाती थी। जिनको पूजने के लिए कोदे की कच्ची रोटी और रूंट बनाकर चढ़ाते थे। यह परम्परा न जाने कितनी पीढ़ियों से चली आ रही थी। घने जंगलों में मवेशियों के साथ रहने के लिए हो सकता है हमारे पुरखों ने अपने लिए खुद ही अराध्य गढ़ा हो जिसके भरोसे वे अपने कठिन जीवन को हंसी-खुशी जीने में सफल रहते होंगे।
पलायन और बाजार का असर अब धीरे-धीरे छानियों पर भी पड़ता जा रहा है। इसका असर यह हो रहा है कि किसी समय में गुलजार रहने वाले डांडा-कांठा, गदेरे आज धीरे-धीरे सन्नाटे में तब्दील हो रहे हैं। इस सन्नाटे में हमारे पुरखों के खेती, पशुपालन और प्रकृति के साथ समन्वय का धागा कहीं टूटता हुआ नजर आ रहा है।
लेखक प्रकाश नेगी आईटी प्रोफेशनल हैं। बचपन गांव में बीता इसलिए पहाड़ के जीवन को बहुत करीब से देखा है। कई बड़ी कंपनियों में सेवाएं देने के बाद अब दिल्ली में अपनी आईटी फर्म चला रहे हैं।