लड़ेंगे-जीतेंगे का ककहरा रचती शिवानी
hys_adm | October 20, 2020 | 2 | कैटेगरी
वो पढ़ती हैं, लिखती हैं, आंदोलनों में गरजती हैं, सेमिनार से लेकर टीवी डिबेट तक में बड़ी स्पष्टता और बेबाकी से बात रखती हैं। छात्र राजनीति की परम्परागत दीवारों को तोड़ अस्पताल, दवा, पानी से लेकर गैरसैंण राजधानी तक के जन मुददों पर सड़कों पर उतरती हैं। वो अस्पतालों में रक्तदान करने से लेकर आंदोलनों में अपना खून-पसीना तक बहाती हैं। वो लोगों की मदद के लिये हर पल तत्पर रहती हैं, आम जलसे से लेकर श्मसान घाट तक अंतिम संस्कारों में कंधा देने जाती हैं।
हां, ये शिवानी हैं।
चमोली जनपद के थराली ब्लॉक के हरचन गांव की रहने वाली हैं शिवानी पांडे। इनकी प्राथमिक शिक्षा गांव में ही हुई। कॉलेज की पढ़ाई के लिए गोपेश्वर और बाद के दिनों में श्रीनगर पहुंचीं। अभी एचएनबी गढ़वाल विवि से पीएचडी कर रही हैं। फॉरेस्ट पॉलिसी और आमजन के फॉरेस्ट राइट के आपसी अंतर्संबंधों को जानने को लेकर। पीएचडी में उनका शोध क्षेत्र है, उत्तराखंड के चमोली, उत्तरकाशी, ऊधमसिंह नगर और नैनीताल जनपद।
छात्र राजनीति में जुड़ने के बारे में शिवानी बताती हैं कि यह कोई तयशुदा यात्रा नहीं थी। हमारे गांव में जहां से मैं आती हूं वहां लड़कियों की इस उम्र में शादी हो जाती है। मेरी भी हमउम्र की अधिकांश लड़कियों की शादी हो गई है। मुझे पढ़ने का खूब शौक रहा, सो मैंने पढ़ाई जारी रखी। मैं पत्र-पत्रिकाओं में राजनीति के बारे में पढ़ते रहती थी। लगता था कि काफी कुछ है, जो गड़बड़ हो रहा है। मुझे लगा कि चीजों को ठीक करने का काम भी हमारा है। इसलिए छात्र राजनीति में आने का फैसला किया। श्रीनगर में छात्र संगठन आइसा इस तरह के काम को बहुत अच्छे से कर रहा था तो उसे ज्वाइन किया।
लड़कियों का चुनाव लड़ने को लेकर बहुत कम भागदारी रहती है। इसका कारण बहुत साफ है। एक तो छात्र राजनीति में भी धनबल का बेतहासा उपयोग होता है। दूसरा चुनाव प्रचार में देर रात तक कैंपेनिंग होती है, जिसको लेकर लड़कियां या उनके घर वाले सहज नहीं होते हैं। इसलिए ज्यादातर उनकी भागीदारी चुनाव प्रचार तक ही सीमित रहती है। इसको देखते हुए हमने विश्वविद्यालय से मांग की कि एक ऐसी पोस्ट होनी चाहिए, जिसके जरिये छात्र संघ में लड़कियों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जा सके। आइसा द्वारा की गई लंबी लड़ाई के बाद 2016 में इसको स्वीकार कर लिया गया और विश्वविद्यालय के सभी कैंपस में छात्रा प्रतिनिधि का पद सृजित हुआ। जिसका मैंने पहला एलक्शन लड़ा और जीती। मैंने और हमारे साथियों ने ये सायास किया, ताकि इस पद के महत्व और उद्देश्य को लेकर आम छात्र-छात्राओं और विश्वविद्यालय तक बात पहुंच सके।
वे बताती हैं कि महिलाओं का छात्र राजनीति या उन तमाम कामों में आना चुनौतिपूर्ण है, जिनमें सवाल करना, अपनी बात रखना और संघर्ष करना होता है। समाज में बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जिनका अंतिम हथियार होता है लांछन लगाना, अफवाहें फैलाना और मुद्दे पर बात करने के बजाय कहना कि आप तो लड़की हो। सोशल मीडिया या दूसरे तमाम प्लेटफार्म पर जब अपनी बातचीत रखते हैं तो सामने वाला उस बात का विरोध नहीं करते, बल्कि घुमा-फिरा कर मैं लड़की हूं, इस पर फोकस करते हैं। यह सिर्फ मेरी बात नहीं है, देश भर में उन तमाम लड़कियों की बात है, जो सवाल करती हैं, चीजों को लेकर समझ के साथ आगे आती हैं। इन सबसे बाहर निकलना ही जीवन है। हमें इन सब चीजों से पार पाते हुए असली मुद्दों और चुनौतियों पर फोकस करना होता है। ये व्यक्तिगत मेरी बात नहीं है, यह देश-दुनिया की हर उस लड़की की कहानी है, जो सोचती है बोलती है, पढ़ती है, लिखती है।
आंदोलन की सफलता के बारे में शिवानी बताती हैं कि छात्र संगठन आइसा की श्रीनगर में ऐतिहासिक भूमिका रही है। विगत छह साल से मैं श्रीनगर में छात्र राजनीति से जुड़ी बहुत से वाकये हुए जिनको लेकर हम सड़क पर उतरे और हमने लड़ाई जीती है। ऐसी ही दो लड़ाई थी, जिसको हमने लड़ा और जीता है। पहला, कॉलेज में जूडो सिखाने वाले इंस्टेक्टर थे, उनपर छह-सात लड़कियों ने आरोप लगाया कि वे शराब पीकर बदतमीजी करते हैं। हमने इसकी शिकायत विश्वविद्यालय में की और लड़ाई लड़ी। हमें स्थानीय लोगों, शिक्षकों और समाज से बहुत सारे दबाव झेलने पड़े। लोगों ने धमकाने के अलावा सहानुभूति के लहजे में भी कहा कि वे बदनाम हो जाएंगे, उनके बच्चे क्या करेंगे, लेकिन हम पीछे नहीं हटे। आखिरकार लंबी लड़ाई के बाद आरोपी इंस्टेक्टर को विश्वविद्यालय से बाहर कर दिया गया।
दूसरा, एक लड़की प्राइवेट लैब में जांच के लिए जाती है। जहां जांच करने वाला उनसे बदतमीजी करता है। लड़की हमारे पास आती है और हम उसकी शिकायत थाने में करते हैं, जिसमें उनको सजा होती है। आज इन्हीं संघर्षों का परिणाम है कि श्रीनगर या उत्तराखण्ड में जब भी इस तरह के वाक्ये होते हैं तो लड़कियां बेहिचक हमसे अपनी बात कहती हैं। महिलाओं के अधिकार और सुरक्षा को लेकर लोगों की हमसे उम्मीदें बढ़ी हैं।
शिवानी बताती हैं कि विश्वविद्यालय में किताबें और पुस्तकालय छात्र राजनीति में कोई मुद्दा नहीं था। इसलिए पुस्तकालय की हालत बहुत खराब थी। हर कोई कहता था, अब पढ़ने वाले ही नहीं हैं तो ऐसा ही होगा। हमने श्रीनगर में 2017 में पुस्तकालय भरो आंदोलन शुरू किया। यह कमाल का रचनात्मक आंदोलन था। हमने सभी छात्र-छात्राओं को वहां बैठकर पढ़ने को प्रोत्साहित किया। रोजाना छात्र-छात्राओं का इस आंदोलन को समर्थन मिलता रहा और धीरे-धीरे पढ़ने की जगहें और किताबें कम पड़ने लगी। फिर हमने संसाधनों को पूरा करने की मांग करते हुए आंदोलन जारी रखा। इसकी वजह से आज किताबें बढ़ी हैं, अलग से काफी शानदार रीडिंग रूम बना है। साथ ही सुबह 10 से शाम पांच बजे के बजाय अब पुस्तकालय सुबह 10 बजे से देर शाम 8 बजे तक खुलता है।
पुस्तकालय का समय तो बदल गया, लेकिन गर्ल्स हॉस्टल का समय शाम छह बजे बंद वाला ही था। फिर हमने इसको लेकर भी आंदोलन किया और गर्ल्स हॉस्टल का समय पुस्तकालय के समय जैसा किया। इस तरह हमने एक रचनात्मक आंदोलन के जरिये चीजों को बेहतर करने की दिशा में सफलता पाई। इन रचनात्मक आंदोलनों की बदौलत ही आइसा छात्र संगठन और मजूबत हुआ है। शिवानी बताती हैं कि आइसा ने छात्र राजनीति को विश्वविद्यालय की दीवारों से बाहर समाज से भी जोड़ा है। हमने शराबबंदी आंदोलन और गैरसैंण राजधानी आंदोलन के अलावा श्रीनगर में होने वाले हर छोटे-बड़े आंदोलन से जुड़े। आमतौर पर लोग मानते हैैं कि छात्र राजनीति समाज से विलग होकर ही होती है, हम इस सोच को तोड़ने की लगातार कोशिश भी कर रहे हैैं।
वे बताती हैं कि जब हम श्रीनगर में पानी और डॉक्टरों की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे थे तो बहुत से लोग कहते थे आप अपनी राजनीति कैंपस में ही करो ये बाकी के मुद्दों से छात्रों का क्या लेना-देना। हमने उनको कहा कि सड़क, बिजली, पानी, बेहतर इलाज या अन्य बातें छात्रों को भी प्रभावित करती हैं। हम कोई एलियन नहीं हैं, जो हम पर इसका प्रभाव न पड़ें। हम भी इसी समाज में रहते हैं और उसको बेहतर करने के लिए लड़ना हमारी जिम्मेदारी है।
श्मसान घाट में लोगों के अंतिम संस्कार में शामिल होने को लेकर शिवानी कहती हैं कि वे जनसरोकारों से जुड़े लोगों के अंतिम संस्कार में घाट पर शामिल हुई हैं। हमारी पढ़ाई किसी काम की नहीं है, यदि हम सामाजिक वर्जनाओं और गलत बातों के खिलाफ अपनी बात न बुलंद करें। इसमें शामिल होने की मुख्य वजह ही यह है कि जो भी वर्जनाएं किसी को दोयम या बिलग करने वाली हैं, उसका विरोध करना उसके लिए खुद से शुरुआत करना है।
छात्र संगठन में नए छात्रों को जोड़ने को लेकर शिवानी बताती हैं कि हम सभी युवा लगभग एक जैसी पृष्ठभूमि से आते हैं। छात्र तभी हमारे साथ जुड़ता है, जब हम ईमानदारी और सिद्दत से छात्रों की लड़ाई लड़ते हैं। हमारे मुद्दे, हमारे आंदोलन करने के तरीके छात्रों को हमसे जोड़ते हैं। कॉलेज में पढ़ रहे छात्रों को समसामयिक मुद्दों पर समझ बने इसको लेकर हम पढ़ने-लिखने से जुड़े आयोजन को करते रहते हैं। शिवानी छात्र आंदोलन की उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती है, जो खूब सारा पढ़ने और संघर्ष करने को छात्र राजनीति का पर्याय मानते थे। लगातार पढ़ने-लिखने और बेबाकी से बात रखने की अदा के चलते ही शिवानी छात्र राजनीति में लड़ेंगे-जीतेंगे के नारे को चरितार्थ कर रही हैं।
ध्यानार्थ : नवरात्र विशेष सीरीज की यह पांचवीं कड़ी है। नवरात्र के नौ दिन हम आपको कला, संस्कृति, खेल, उद्योग, स्वरोजगार, राजनीति आदि क्षेत्रों में काम करने वाली उत्तराखंड की बेटियों की कहानी से रूबरू करा रहे हैं, तो फिर जुड़े रहिए हमारे साथ।
शनादार ,जबरदस्त ,जिन्दाबाद
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