पहाड़ी पकवान, एक पहाड़ी की नजर से
hys_adm | October 11, 2020 | 13 | खानपान , जीवन-शैली , पहाड़ की बात
जब भी संस्कृति शब्द मन में कौंधता है, कितने विचार बनने लगते हैं। संस्कृति को बनने-संवरने में जमाने लग जाते हैं। हम कभी-कभी उसके कुछ छोटे-छोटे हिस्सों को लेकर खींचातानी करने लगते हैं। संस्कृति बहुत व्यापक है, वहां वह सब कुछ है जो जीवन में है, संस्कृति छन-छन कर आती है। इसको समझना इतना आसान भी नहीं है, परम्परा और संस्कृति में भी बड़ा अंतर है, परम्पराओं में से अच्छी-अच्छी बातें निकल-निकल कर कालांतर में संस्कृति बनती रहती है, लोक संस्कृति अन्तस में रची-बसी होती है। संस्कृति नष्ट नहीं होती है, लेकिन परम्पराएं बनती बिगड़ती रहती हैं। संस्कृति में कुछ भी बुरा नहीं है, लेकिन परम्परा में बुराई देखी जा सकती है। भाषा-बोली, विचार, व्यवहार, भोजन और धर्म-सम्प्रदाय ये सभी कुछ संस्कृति के ही हिस्से हैं।
फिर लोक संस्कृति की तो बात ही कुछ और है। कोई कितनी दूर चला जाए इससे, लेकिन मन में हमेशा ये जिंदा रहते हैं।
लोक की सबसे बड़ी खासियत ये है कि लोक में कोई दर्शक नहीं होता सब प्रस्तोता होते हैं। लोक हमको किंकर्तव्यविमूढ़ बैठने नहीं देता। जन्म से लेकर मरण तक के सब काम लोक में ही होते हैं। लोक की ये ही खासियतें हैं, जो उसको बिना लिखे-बिना पढ़े एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाती हैं। ये ऐसी चीजें है जो मेरी परनानी की नानी ने मेरी नानी को सिखाया, मेरे दादा के परदादा ने मेरे परदादा को सिखाया। यहां सीखना-सिखाना किसी कक्षा में नहीं हुआ। इसको तो उन्होंने करते-करते ही सीखा। तभी तो लोक आज तक जिन्दा है। सलाम है उन लोगों को जिन्होंने रचा इस लोक को! इस लेख में मैंने पहाड़ की इसी लोक संस्कृति को भोजन के दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की है। साथ ही इमसें अपने अनुभवों को जोड़ने की कोशिश की है। पहाड़ की अपनी एक विस्तृत भोजन संस्कृति रही है। इसी भोजन संस्कृति के बलबूते पर पहाड़ के लोगों ने अपने मुश्किल सफर को आसान किया है और इस भोजन को खाकर ताकत पाई और पहाड़ चढ़े हैं।
डुबके, चैंस, चुड़कानी
पहाड़ी खाना परम्परागत खाने के रंगों में फिट नहीं बैठता, इसीलिए मुझे ये बहुत पसंद है। एक और बात जो मुझे बहुत अच्छी लगती है, वो है अगर भात के साथ खाने के लिए दाल की मात्रा कम भी हो फिर भी आप पूरे परिवार के लिए खाना बना सकते हैं। डुबुक, चैंस, बड़ी- मुंगोंडी, काप, चुडकानी कुछ ऐसी ही डिशेज हैं, जो भात के साथ खाई जाती हैं। भात का अर्थ चावल से है। पहाड़ों में दाल गाढ़ी नहीं बनती है। उसमें रस हमेशा ज्यादा होता है। रस-भात ऐसी ही एक डिश है। डुबुक में दाल को भिगा कर, पीसकर बनाया जाता है। एक मुट्ठी दाल में पूरा परिवार खाता है। कम संसाधनों में भी भरपूर पोषण मिलता रहता है। स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से देखें तो बहुत गाढ़ी दाल अच्छी नहीं होती। कई बार डॉक्टर खुद मना करते हैं गाढ़ी दाल खाने को। चैंस में दाल को सिलबट्टे पर दल लेते हैं फिर कढ़ाई में थोड़ा तेल में भून लेते हैं। फिर कढ़ाई में पकाते हैं। काप हरी सब्जियों को रसदार बनाकर चावल के साथ खाते हैं। इसमें आटे का बिस्वार डालते हैं, थोड़ा गाढ़ा करने के लिए। चुड़कानी काले सोयाबीन, जिनको भट्ट कहते हैं, की बनती है।
सना सलाद
हमारा लोक ज्ञान काफी समृद्धि था, जैसे जाड़ों में इतनी ठण्ड के बावजूद खट्टे फलों के सेवन। सना हुआ नींबू इसका उदाहरण है। जाड़ों में त्वचा सूख जाती है और खट्टे फल त्वचा के लिए अच्छे माने जाते हैं। तो शुरू होता है नींबू, माल्टे और संतरा को दही, भांग के भुने बीजों को पीस कर बनाया नमक, गुड़, शहद और केला डालकर बनाई गई एक विशेष डिश जो सिर्फ उत्तराखण्ड के हिमालयी क्षेत्र में खाने को मिलती है। यह अकेले नहीं बनता, बल्कि समुदाय में बनता है, नींबू खाने के लिए आवाज लगती थी पहले हमारे पड़ोस में। कितनी सारी पोषण की चीजें शरीर में चली जाती थी तब जो जाड़ों में नितांत जरूरी लगती हैं।
भांग की चटनी
आज जब भांग के बीजों की चटनी बनाई तो काफी कुछ याद आया। ये कुमाऊं की प्रमुख चटनियों में से एक है। वैसे चटनी तिल, भट्ट, सोयाबीन, भंगीर और अलसी की भी बनती है। ये सभी बीज स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम हैं। खासकर ठण्डे प्रदेशों के निवासियों के लिए। इनमें प्रोटीन, कैल्सियम और वसा भरपूर होता है। कितना वक्त लगा होगा न इन सबको खोजने में कि किस भूभाग के लिए कौन-सा भोजन ठीक है और मौसम बदलने पर खाना बादल देना आदि। यहां भूगोल कितनी बड़ी भूमिका का निर्वहन करता है। इस चटनी को बनाने के लिए भांग के बीजों को मध्यम आंच पर भून लेते हैं फिर ठण्डा करके पुदीना, हरा धनिया और मिर्च के साथ पीस लेते हैं। इसके बाद इसमें नींबू निचोड़ लेते हैं, जिससे चटनी खट्टी हो जाए। कुछ लोग फ्लेवर के लिए चीनी भी मिलाते हैं, जिससे यह हल्का खट्टे-मीठे का स्वाद देती है। इसे रोटी, दाल-चावल और पराठों के साथ खाया जा सकता है।वैसे चटनी यहां हमेशा से सब्जी का विकल्प रही है। जिन दिनों सब्जियों का अकाल हुआ तो चटनी के साथ ही रोटी खा ली जाती थी। महिलाओं के लिए तो ये वरदान थी। अमूमन महिलाएं सबको खिलाने के बाद ही खाना खाती थी, जो कि बहुत गलत परम्परा है। कई बार उनके लिए सब्जी बचती ही नहीं थी तो वे जल्दी से चटनी बनाकर उसी के साथ रोटी खा लेती थीं। कम से कम कुछ पौष्टिक तत्व तो मिल ही जाते होंगे उनको।
पहाड़ी पीला रायता
पहाड़ी पीला रायता, पीला इसीलिए क्योंकि इतनी सारी हल्दी शायद ही किसी रायते में पूरी दुनिया में पड़ती होगी। हल्दी यानी स्वास्थ्य के गुणों से भरी, रोगों से लड़ने में कारगर। इसमें मिलाई जाती है बारीक राई जो तासीर में गर्म मानी जाती है, दही और खीरे की ठंडी तासीर को पहाड़ों के हिसाब से गरमा देती है। हल्दी का पीला रंग इसको समृद्धि का टच देता है। पीले रंग का तो एक पूरा फलक है पहाड़ में, जो प्योली के फूलों से लेकर रंगवाली पिछौड़े तक जाती है, पीले रंग की ये धमक।
पहाड़ी स्नैक्स आलू के गुटके
आलू के गुटकों की बात आती है तो कई बार लोग इनको सब्जी कह देते हैं, लेकिन ये पहाड़ के लोगों के लिए हमेशा से एक बढ़िया स्नैक्स रहा है। पहाड़ों में आलू बहुतायात होता है तो इसको अलग-अलग रूपों में खाया जाना यहां के लोगों की सृजनात्मकता और आत्मनिर्भरता की गाथा है। जलवायु हमको खाने और पहनने के नियम देती है। आलू के गुटके, आलू तरी, आलू दही डाली जम्बू से छौंकी सब्जी वाह! आलू के गुटकों के ऊपर ककड़ी का पीला रायता क्या स्वाद देता है!
चीला का स्वाद
भुट्टे का चीला (चिलोड़) उसके ऊपर भांग की चटनी रखकर खाना अपने आप में एक अनुपम अनुभव है। भुट्टे के बीज निकालकर उनको पीसकर थोड़ा कम गाढ़ा करके तवे पर तेल रखकर फैला लेते हैं और हो गया सुस्वादु चीला तैयार। चीला आटे से भी तैयार होता है जिसको छोली रोटी कहते हैं। यह मीठा होता है कुछ लोग अलग स्वाद के लिए इसे नमकीन भी बनाते हैं।
..और अंत में कुछ मीठा हो जाए
अब कुछ मीठा हो ही जाए। यहां के मीठे में गरिष्ठता नहीं है, चाहे हम मकरसंक्रांति के मौके पर बनने वाले घुघुतों कि बात करें या अरसों कि बात करें। सामान्य सा मीठा पड़ता है और तेल में तल लिया जाता है। ये आटे से ही बनते हैं। कई मौकों पर बनने वाली गुड की लपसी जो दूध और आटे को मिला कर बनती है। आज भी पहाड़ों में जब घर के जानवर को बच्चा हुए बाइस दिन हो जाते हैं तो ये लापसी ही पशुओं के लोक देवता नगारधण या चैमु को चढाते हैं। इस लपसी में पुआ डुबो के खाने में और ही मजा आता है। चावल का साई, जो चावल को भिगा के पीस कर बनता है। यह एक तरह का हलवा ही है, जो बहुत मीठा नहीं होता, लेकिन खाने में बहुत स्वाद होता है। विशेष त्योहारों पर सिंगल नाम की एक मीठी डिश बनती है, जो सूजी, आटा, चीनी को दही में भिगा कर बनती है। इनको फिर घी में तल लेते हैं। इसको बनाने के लिए कहते हैं बहुत सधे हुए हाथों की जरूरत होती है। इसके अलावा भी काफी कुछ है, जो पहाड़ों को ‘पहाड़’ बनाता है।
अपनी संस्कृति को भुला देना खराब बात
इस लेख को लिखने का उद्देश्य है, लोग पहाड़ को जानें, यहां के खाने को समझें, पहाड़ आएं और दुनिया में जहां-जहां भी उत्तराखंडी हैं, वो अपनी आने वाली नस्लों को जरूर बताएं अपनी इस थाती के बारे में। दूसरी संस्कृतियों को अपनाना और उनका सम्मान करना बुरा नहीं, लेकिन अपनी संस्कृति को भुला देना या हेय दृष्टि से देखना ये बहुत खराब बात है। आने वाली पीढ़ियां जब हमसे संस्कृति के लोप होने का कारण पूछेंगे तो हम अनुत्तरित रह जाएंगे। ऐसा न हो कि हम अंतिम पीढ़ी हों जो इस संस्कृति को जानती-पहचानती है और जिन्होंने इसे बचाया नहीं। इसीलिए हमारी जवाबदेही कुछ ज्यादा हो गई है।
ऐसा है मेरा पहाड़ मेरा घर कुमाऊं…
लोक ज्ञान को बनाने में सदियां लग जाती हैं, लेकिन उसको उजाड़ने में कुछ ही साल लगते हैं। क्योंकि लोक ज्ञान कहीं किताबों में नहीं लिखा होता है। यह तो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को खुद ही हस्तांतरित होती रहती है, या कहना चाहिए कि एक पीढ़ी स्वतः करते-करते ये सीख जाती है। इस तरह संचित और संरक्षित हुआ ये लोक ज्ञान और विज्ञान। अब जब पुरानी पीढ़ी नईं पीढ़ी को बताएगी-सिखाएगी नहीं तो कहां से बचेगा लोक ज्ञान। ऐसा है मेरा पहाड़ मेरा घर कुमाऊं! वैसे मैं दुनियां के सभी पहाड़ों को जुड़ा हुआ ही महसूस करता हूं, इसीलिए जब हिमालय की बात करता हूं तो नीलगिरी, अन्नामलाई, ऐण्डीज और रॉकी, अल्पस, हिंदुकुश, कराकोरम स्वतः उसमें शामिल हो जाते हैं। क्योंकि पहाड़, पहाड़ी और यहां के रहवासियों की दिक्कतें और उनके सुख हर ओर एक जैसे हैं।
लेखक डॉ. पूरन जोशी भूगोल के अध्येता और शिक्षाकर्मी हैं। भूगोल की जटिल अवधारणाओं को लोक में बिखरी संस्कृति संपदा के साथ सहजता से जुड़ाव कर अभिव्यक्त करना उनका सगल है
Dr. Puran joshi.
Presently associated with Azim Premji Foundation at Ranikhet.
Great Puran Dajyu..
Bahut achcha likha hai doctor sahab
काफी अच्छा लेख है पूरण भाई| मैं तो समझता हूँ की पहाड़ की कल्चर यहाँ आ कर रहने वाले को भी अपने रंग में रंग लेती है| मैं मैदान का हूँ , लेकिन हिमालय पाद क्षेत्र में रहने के कारण कई पहाड़ी खाने मेरे किचेन में बनतें हैं| और सच मुच स्वादिस्ट होतें हैं|
धन्यवाद जी आपने पढ़ा और समझा यहाँ की संस्कृति को।
A very informative article written in engaging and fun filled style. One of the rare food articles that we get to read these days. Keep writing and keep informing us with insights to the culture of the mountains.
Awesome da Highly Appreciated as u people are taking our culture ahead keep writing…
Best wishes
धन्य हो ड्रा० साहब आपने हमारे पहाड़ की सदियों से सरक्षित व्यंजन विधि को सबके सम्मुख प्रस्तुत किया है। आपका दिल से आभार …………
आप आरंभ से ही काफी प्रतिभावान, और आपकी रचना शैली हमेशा उत्कृष्ट रही है। आपके सानिध्य में रहकर आप से बहुत सिखने को मिला। आपकी कार्य के प्रति निष्ठा, सरलता, शालीनता,बेबाकी और अनजान के प्रति स्नेहभाव आपको सबसे बेहतरीन बनाती हैं।
सहज और सरल रूप से आपने कुमाउँनी व्यंजनों के बारे में बताया।सच मे पहाड़ियों को पतली दाल ही पसन्द होती है।मेरे घर मे भी सबको ऐसी ही डाल पसन्द है।महिलाओं का अक्सर भांग की चटनी के साथ ही रोटी खा लेना आपके सूक्ष्म अवलोकन को दर्शाता है।सच मे वो परिवार को खिलाने के बाद अपने लिये कुछ बचा ही नहीं पाती थी और तब ये भांग की चटनी में ही उसे छप्पन भोगों का स्वाद नज़र आता था।बहुत शुक्रिया आपको लेख पढ़कर वाक़ई में बहुत अच्छा लगा।भविष्य के लिये अग्रिम शुभकामनाएं।🙏🙏
Bahut acha lekh bahut ache se pahadi culture ke bare main batya aap ne👍👍
Best wishes
सभी को धन्यवाद
अपनी संस्कृति के अस्तित्व को बनाया रखने और उसके प्रचार-प्रसार का सबसे सरल ,आसान ,रोचक और लुभावन तरीका खानपान है जो हर प्रकार के व्यक्ति को अपनी और आकर्षित करता है और ऊपर से पहाड़ी खानपान की संस्कृति हो तो वो सोने पे सुहागा हुई । पहाड़ी खानपान मे पूरा पहाड़ का संघर्ष और स्वाद छिपा होता है।
सर आपका लेख पढ़ कर ऐसे लगा है की अभी तक हम अपनी संस्कृति से जुड़े हुए है । जिसमें सबसे बड़ा योगदान हमारी दादी ,नानी और माताओ का है जो समय समय पर हमें इनसे परिचित कराती रहती है ।परन्तु हमारी इस पीढ़ी पर उनके इस पाक ज्ञान का अभाव देखने को मिलता है ।
सर आपका लेख पढ़ कर बहुत अच्छा लगा 🙂