हिमालय को नापने वाले नैन सिंह रावत

हिमालय को नापने वाले नैन सिंह रावत

hys_adm | October 21, 2020 | 0 | देश-दुनिया , पहाड़ की बात , शख्सियत

नैन सिंह रावत वे शख्‍स हैं, जिन्होने अंग्रेजों के जमाने में हिमालय के क्षेत्रों की खोजबीन की। बिना किसी आधुनिक उपकरणों के नैन सिंह रावत ने नेपाल से होते हुए तिब्‍बत तक के व्यापारिक मार्ग का मानचित्रण किया। उन्होंने ही सबसे पहले लहासा की स्थिति तथा ऊंचाई ज्ञात की और तिब्बत से बहने वाली मुख्य नदी त्सांगपो (Tsangpo) के बहुत बड़े भाग का मानचित्रण भी किया। आज यानी 21 अक्‍टूबर को उनका जन्‍मदिन है।

दुनिया के इस महान सर्वेयर को देश ही नहीं उत्‍तराखंड के लोग भी उन्‍हें भूल ही गए थे, लेकिन वर्ष 2017 उनके जन्‍मदिन के दिन गूगल ने उनका डूडल बनाकर उन्‍हें नई पहचान दिलाई। सर्च इंजन गूगल वैसे तो खास मौकों पर ही विशेष डूडल तैयार करता है, लेकिन गूगल ने जब 21 अक्‍टूबर 2017 में नैन सिंह रावत पर डूडल बनाया तो हर कोई जानने को आतुर हो गया यह शख्स है कौन। फि‍र उनके बारे में लोगों ने जानकारी जुटाई और नैन सिंह रावत का दुनिया को दिया योगदान एक बार फि‍र दुनिया के सामने ताजा हो गया। पंडित नैन सिंह रावत का जन्म पिथौरागढ़ के मुनस्यारी तहसील के मिलम गांव में 21 अक्तूबर 1830 को उनका जन्‍म हुआ। आइए जानते हैं उनके बारे में…

नैन सिंह रावत को अक्‍टूबर 017 में गूगल ने डूडल बनाकर याद किया था।

नैन सिंह रावत ने बिना किसी तामझाम के 19वीं शताब्दी में तिब्बत को नापा था। यही नहीं उन्होंने हिमालय की लंबी-लंबी पैदल यात्राएं कर दुनिया को इसकी खूबियों से वाकिफ कराया।  उन्होंने बिना किसी आधुनिक उपकरण के पूरे तिब्बत का नक्शा तैयार किया था। उस खतरनाक समय में जब तिब्बत में किसी विदेशी के पकड़े जाने पर मौत की सजा दी जाती थी। ऐसे हालात के बावजूद नैन सिंह रावत न सिर्फ वहां पहुंचे, बल्कि केवल रस्सी, कंपास, थर्मामीटर और कंठी के जरिए पूरा तिब्बत नाप कर आ गए। उस जमाने में पंडित उन्हें कहा जाता था, जो पढ़े लिखे होते थे। इसलिए नैन सिंह रावत के ज्ञान के आधार पर नाम के आगे पंडित लगाया गया।

19वीं शताब्दी में अंग्रेज़ भारत का नक्शा तैयार कर रहे थे। वह लगभग पूरे भारत का नक्शा बना चुके थे। वे आगे बढ़ते हुए तिब्बत का नक्शा चाहते थे, लेकिन फॉरबिडन लैंड कहे जाने वाली इस जगह पर किसी भी विदेशी के जाने पर मनाही थी। ऐसे में किसी भारतीय को ही वहां भेजने की योजना बनाई गई। इसके लिए लोगों खोज शुरू हुई। आखिरकार 1863 में कैप्टन माउंटगुमरी को दो ऐसे लोग मिल ही गए। इनमें से एक थे पंडित नैन सिंह रावत और दूसरे थे उनके चचेरे भाई मानी सिंह। दोनों को देहरादून में सर्व ऑफ इंडिया में प्रशिक्षण दिया गया। उस समय दिशा और दूरी नापने के यंत्र काफी बड़े हुआ करते थे, लेकिन उन्हें तिब्बत तक ले जाना कठिन और चुनौतीपूर्ण था। उपकरणों के साथ दोनों के पकड़े जाने का भी खतरा था। ऐसे में तय हुआ कि दिशा नापने के लिए छोटा कंपास और तापमान नापने के लिए थर्मामीटर इन्हें सौंपा जाएगा। दूरी नापने के लिए नैन सिंह के पैरों में 33.5 इंच की रस्सी बांधी गई, ताकि उनके कदम एक निश्चित दूरी तक ही पड़ें। हिंदुओं की 108 की कंठी के बजाय, उन्होंने अपने हाथों में जो माला पकड़ी, वह 100 मनकों की थी, ताकि गिनती आसान हो सके। 

नैन सिंह रावत पर पुस्‍तक भी लिखी गई हैैै।

1863 में दोनों भाइयों ने अलग-अलग राह पकड़ी। नैन सिंह रावत काठमांडू के रास्ते और मानी सिंह कश्मीर के रास्ते तिब्बत के लिए निकले। मानी सिंह इसमें असफल रहे और वापस आ गए, लेकिन पंडित नैन सिंह रावत ने अपनी यात्रा जारी रखी। नैन सिंह सफलतापूर्वक तिब्बत पहुंचे और पहचान छिपाने के लिए बौद्ध भिक्षु के रूप में वहां घुल-मिल गए। उन्होंने तिब्बती भाषा भी सीखी। उन्हें अंग्रेजी और फारसी का भी अच्छा ज्ञान था। वह दिन में शहर में टहलते और रात में किसी ऊंचे स्थान से तारों की गणना करते। नैन सिंह रावत ने ही सबसे पहले दुनिया को ये बताया कि लहासा की समुद्र तल से ऊंचाई कितनी है। उन्होंने ब्रहमपुत्र नदी के साथ लगभग 800 किलोमीटर पैदल यात्रा की और दुनिया को बताया कि स्वांग पो और ब्रह्मपुत्र एक ही नदी है। उन्होंने दुनिया को तिब्बत के कई अनदेखे और अनसुने रहस्यों से रूबरू कराया। 1866 में नैन सिंह रावत मानसरोवर के रास्ते भारत वापस आ गए। 

भारत सरकार ने 2004 में नैन सिंह रावत पर डाक टिकट भी जारी किया था।

साल 1867-68 में वह चमोली जिले के माणा पास से होते हुए तिब्बत के थोक जालूंग गए, जहां सोने की खदानें थीं। उनकी तीसरी बड़ी यात्रा साल 1873 -74 में की गई शिमला से लेह और यारकंद की थी। उनकी आखिरी और सबसे अहम यात्रा साल 1874-75 में हुई, जिसमें वे लद्दाख से लहासा गए और फिर वहां से असम पहुंचे। इस यात्रा में नैन सिंह रावत हिमालय के ऐसे इलाकों से गुजरे, जहां दुनिया का कोई आदमी नहीं पहुंचा था। पंडित नैन सिंह रावत के इस काम को ब्रिटिश राज में भी सराहा गया। अंग्रेज सरकार ने 1877 में बरेली के पास 3 गांवों की जागीरदारी उन्हें उपहार स्वरूप दी। इसके अलावा उनके कामों को देखते हुए कम्पेनियन ऑफ द इंडियन एम्पायर का खिताब दिया गया। देहरादून के सर्वे ऑफ इंडिया में आज भी नैन सिंह रावत की साहस भरी गाथा दर्ज है। नैन सिंह अच्छे लेखक भी थे। उन्होंने ‘अक्षांश दर्पण’ और ‘इतिहास रावत कौम’ नाम से दो पुस्तकें भी लिखीं। उनकी, ‘यात्रा डायरियां दुनिया भर के खोजकर्ताओं के लिए पवित्र ग्रंथ हैं। उनकी खोजों के लगभग 140 सालों बाद भारत सरकार को भी उनकी याद आई। साल 2004 में उनके नाम से एक डाक टिकट जारी किया गया।

भारत ही नहीं दुनिया के महान सर्वेयर नैन सिंह रावत।

सरकार ने दी परिजनों को आर्थिक मदद

तिब्बत को विश्व मानचित्र पर पहचान दिलाने वाले उत्तराखंड के महान सर्वेक्षक और मानचित्रकार पंडित नैन सिंह रावत के परिजनों पर सरकार भी ध्‍यान दे रही है। यहां तक कि पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज ने कुछ समय पूर्व बॉलीवुड के निर्देशकों से आग्रह किया था कि वह नैन सिंह रावत पर फि‍ल्‍म बनाएं। सरकार की ओर से पंडित नैन सिंह के परिवार को आर्थिक सहायता राशि भी प्रदान की गई है। क्‍योंकि उनके परिजन आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं। वर्तमान में पंडित नैन सिंह की पांचवी पीढ़ी के परिवार की आर्थिक स्थिति दयनीय है। उनकी इस पीढ़ी के कविंद्र सिंह पर बहुउद्देशीय साधन सहकारी समिति का ऋण बकाया था।

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